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गाथा १०८ : परमालोचनाधिकार
१४५ करना आलोचन है । पूर्व में किये हुये पुण्य-पापरूपी दोष मेरे स्वरूप में नहीं हैं - ऐसा समझकर अपने स्वरूप में लीन होकर पुण्य-पाप को उखाड़ फेंकना आलुंछन है । पुण्य-पापरूपी विकृति का अभाव करके आत्मा को विकाररहित प्रगट करना अविकृतिकरण है और चैतन्यस्वरूप आत्मा के अवलम्बन से भावों की शुद्धता होना भावशुद्धि है। .. यह चार भेद व्यवहार से हैं, वास्तव में तो एक चैतन्य के अवलम्बन में ही यह चारों भेद आ जाते हैं।
भगवान की दिव्यध्वनि से ग्रहण करके गणधरदेव ने जो शास्त्रों की रचना की है, उनमें आलोचना के चार भेद कहे हैं।'
भगवान की दिव्यध्वनि का एवं गणधरदेव द्वारा रचित समस्त सिद्धान्तादि शास्त्रों का सार तो एक परमानन्दमूर्ति आत्मा को देखना
और उसके आनन्द में लीन होना है, इसके अलावा पुण्य-पाप आस्रव आदि सारभूत नहीं है । अन्तर्मुख होकर शुद्धात्मा का अनुभव करना ही सार है । बारम्बार चैतन्य की रुचि करना ही सारभूत है।" ___ इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि आगम में आलोचना के चार भेद बताये गये हैं; जो इसप्रकार हैं - आलोचन, आलुछन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि । इन चारों के स्वरूप को आगामी चार गाथाओं के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही स्पष्ट कर रहे हैं। अत: उनके बारे में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ।।१०८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है
(इन्द्रवज्रा) आलोचनाभेदममुं विदित्वा
मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् । स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीवः
तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय ।।१५३।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८९०
२. वही, पृष्ठ ८९१