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नियमसार अनुशीलन इस छन्द में यही कहा गया है कि मेरे द्वारा अबतक किये गये, कराये गये और अनुमोदना किये गये सभी प्रकार के पापभावों की निष्कपटभाव से आलोचना करके, मरणपर्यन्त के लिए उनके त्याग का महाव्रत लेता हूँ, संकल्प करता हूँ।।५९||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथाहि लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जो इसप्रकार है -
(स्रग्धरा) आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे । पश्चादुच्चैः प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मी व्रजामि ॥१५२ ।।
(रोला) पुण्य-पाप के भाव घोर संसार मूल हैं।
बार-बार उन सबका आलोचन करके मैं ।। शुद्ध आतमा का अवलम्बन लेकर विधिवत्।
द्रव्यकर्म को नाश ज्ञानलक्ष्मी को पाऊँ ।।१५२।। घोर संसार के मूल सभी पुण्य-पापरूप सभी शुभाशुभ कर्मों की बारंबार आलोचना करके अब मैं निरुपाधिक गुणवाले शुद्ध आत्मा का स्वयं अवलम्बन करके द्रव्यकर्मरूप समस्त कर्म प्रकृतियों को नष्ट करके सहज विलसती ज्ञानलक्ष्मी को प्राप्त करता हूँ। स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जो जीव चैतन्य को भूलकर पुण्य-पाप में रुचिवान होते हैं, वे जीव चार गतिरूप संसार में रखड़ते हैं । यहाँ शरीर की क्रिया की बात नहीं है, परन्तु दया-दान पूजादिरूप शुभभाव सुकृत हैं और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीलादिरूप अशुभभाव दुष्कृत है - यह सुकृत तथा दुष्कृत दोनों ही घोर संसार के कारण हैं; क्योंकि पुण्य करके स्वर्ग में जावे तो वह भी संसार ही है - इसप्रकार जो पुण्य और पाप दोनों को