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गाथा १०७ : परमालोचनाधिकार अपने से भिन्न समझकर अपनी शुद्धात्मा का अवलम्बन लेते हैं, उन्हें संवर होता है।
जिसप्रकार बबूल की जड़ को पानी देने से बबूल का फल प्राप्त होता है और आम की जड़ को पानी देने से आम का फल प्राप्त होता है। उसीप्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा धर्म का मूल है। उसकी रुचि का पोषण करने से मोक्ष प्राप्त होता है और पुण्य-पाप भाव संसार के मूल हैं, उनकी रुचि का पोषण करने से चार गतिरूप घोर संसार में परिभ्रमण होता है। पुण्य के फल में प्राप्त सेठाई या स्वर्ग भी घोर संसार है, उसमें चैतन्य का सुख नहीं है।
जिसप्रकार मोर अण्डे के छिलके में से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उसके अन्दर रस में से उत्पन्न होता है; उसीप्रकार चैतन्यमूर्ति आत्मा में मोक्ष की शक्ति भरी है, उस शक्ति में से मोक्ष प्रगट होता है । पुण्य-पाप तो छिलके के समान हैं, उसमें से मोक्षदशा प्रगट नहीं होती। ___ जिसप्रकार छिलके को तोड़कर मोर प्रगट होता है, उसीप्रकार पुण्य पाप के भावों को भेदकर आत्मा देखने से अर्थात् आत्मा में स्थिर होने से मोक्ष प्रगट होता है। उसी का नाम आलोचना एवं मुनिपना है। ___ मुनिराज कहते हैं कि मैं अपने शुद्धात्मा का अवलम्बन करता हूँ, पश्चात् अपने में ही एकाग्र होकर कर्म का नाश करके सहज विलसती केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करूँगा।"
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि पुण्य-पापरूप शुभाशुभ भाव संसार के मूल (जड़) हैं और शुद्धात्मा के आश्रयरूप शुद्धभाव मोक्ष का मूल है। इसलिए अब मैं शुद्धभावरूप आत्मा का आश्रय लेकर कर्मों का नाशकर केवलज्ञानरूप लक्ष्मी को प्राप्त करूँगा।
स्वामीजी भी अनेक उदाहरण देकर इसी बात को स्पष्ट करते हुए पुण्य-पाप का हेयत्व और शुद्धात्मा का उपादेयत्व सिद्ध करते हैं ।।१५२।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८८६
२. वही, पृष्ठ ८८७
३. वही, पृष्ठ ८८७