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गाथा १०७ : परमालोचनाधिकार
( आर्या )
मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।। ५८ ।। १ (रोला )
मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
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शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥ ५८ ॥ मोह के विलास से फैले हुए इन उदयमान कर्मों की आलोचना करके अब मैं चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही वर्त रहा हूँ ।
इस कलश में यही कहा गया है कि मोहकर्म के उदय में होनेवाले भावकर्मों की आलोचना करके अब मैं स्वयं में अर्थात् स्वयं के शुद्ध-बुद्ध निरंजन निराकार आत्मा में ही वर्त रहा हूँ, लीन होता हूँ, लीन हूँ ॥ ५८ ॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज उक्तं चोपासकाध्ययने उपासकाध्ययन में भी कहा है - ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है .
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( आर्या ) आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि
निः शेषम् ।। ५९ ।।
(रोला )
किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो । आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ||
अरे पूर्णतः उन्हें छोड़ने का अभिलाषी ।
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धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ||५९||
अब मैं कृतकारितानुमोदित अर्थात् किये हुए, कराये हुए और अनुमोदना किये हुए सभी पापों की निष्कपटभाव से आलोचना करके मरणपर्यन्त रहनेवाले परिपूर्ण महाव्रत धारण करता हूँ।
१. समयसार, कलश २२७ २. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२५