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नियमसार अनुशीलन मतिज्ञान, श्रुतज्ञान की पर्याय को एक साथ रहने की अपेक्षा उन्हें सहभावी गुण कहा है; परन्तु वास्तव में तो वे विभावपर्यायें ही हैं। यहाँ तो पर्याय बुद्धि छुड़ाकर द्रव्यदृष्टि कराना है, क्योंकि उसके बिना संवर नहीं होता।'
त्रिकाली तत्त्व स्वभावगुणपर्यायों से परिपूर्ण है - ऐसे आत्मा को लक्ष्य में लेकर जो उसमें एकाग्र होता है, वह भावश्रमण है और उसे ही वास्तविक आलोचना होती है। चैतन्यतत्त्व की जानकारी बिना प्रतिक्रमण, सामायिक, आलोचना आदि कोई भी धर्म प्रगट नहीं होता।
द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित शुद्धात्मा का जो अन्तरंग में स्थिरतापूर्वक अवलोकन करता है, उसे भावश्रमण कहा है। इसके अलावा पंचमहाव्रत पालने से या दिगम्बर होकर जंगल में रहने से भावश्रमण नहीं कहलाता। ___ मुनिराज चैतन्य की परमसमाधि में ऐसे गुप्त हो जाते हैं कि अन्दर क्या करते हैं? – इसकी अन्य जीवों को खबर ही नहीं पड़ती। मुनिराज शरीर का लक्ष्य छोड़कर अन्दर चैतन्य के ध्यान में लीन होकर शरीरमन-वाणी की गुप्ति से गुप्त हो गये हैं - ऐसे मुनियों को ही निश्चय आलोचना होती है।" ___ इसप्रकार इस गाथा और इसकी टीका में यही कहा गया है कि औदारिकादि शरीररूप नोकर्म और ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मों से तथा मतिज्ञानादि विभावगुण और नरनारकादि व्यंजनपर्यायों से भिन्न तथा स्वभावगुणपर्यायों से संयुक्त आत्मा को जो मुनिराज परमसमाधि द्वारा ध्याते हैं; उन मुनिराजों को निश्चय आलोचना होती है।।१०७||
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः - तथा आचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा भी कहा गया है - ऐसा कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८८२-८८३ २. वही, पृष्ठ ८८४ ३. वही, पृष्ठ ८८४