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________________ गाथा १०७ : परमालोचनाधिकार १३९ इसप्रकार इन कर्म-नोकर्म एवं विभावगुणपर्यायों से भिन्न एवं स्वभाव गुणपर्यायों से संयुक्त; त्रिकाल निरावरण, निरंजन आत्मा को, तीन गुप्तियों से गुप्त परमसमाधि द्वारा जो परमश्रमण अनुष्ठानसमय में वचनरचना के प्रपंच (विस्तार) से पराङ्मुख रहता हुआ नित्य ध्याता है; उस भावश्रमण को निरन्तर निश्चय आलोचना होती है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “प्रश्न - प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना नव तत्त्व में से किस तत्त्व में आते हैं? उत्तर – निश्चयप्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान चारित्र के भेद हैं, इसलिए मोक्ष के उपाय होने से संवर-निर्जरातत्त्व में आते हैं। तथा जो शुभाशुभभावरूप व्यवहार प्रतिक्रमण आदि हैं; वे आस्रवरूप होने से आस्रवतत्त्व में आते हैं। ___ पहले शुद्धात्मा को ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्मरूप परद्रव्य से भिन्न बताया, अब अपनी विकारी पर्याय से भिन्न बताते हैं :___ मतिश्रुतज्ञानपर्याय विभावगुण हैं, क्योंकि इनके आश्रय से निर्मलदशा प्रगट नहीं होती। आत्मा का स्वरूप मतिश्रुतज्ञानपर्याय मात्र नहीं है, इसलिए पर्यायबुद्धि छुड़ाने के लिए उन्हें विभावगुण कहा है और नर-नारकादिपर्याय विभाव व्यंजनपर्याय हैं। __ शरीर का आकार तो भिन्न है ही, लेकिन शरीराकार आत्मप्रदेशों का जो अरूपी आकार है, वह विभावव्यंजनपर्याय है, शुद्धात्मा उससे भी भिन्न है। शरीर से, कर्म से, रागादि से और मतिज्ञानादिक विभावपर्यायों से तो आत्मा भिन्न है ही; तथा आत्मा के प्रदेशों की जो विभावरूप आकृति, उससे भी भगवान आत्मा भिन्न है। ___ यहाँ मतिज्ञानादिक को त्रिकालीगुण के रूप में नहीं कहा है, बल्कि १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८८०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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