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परमालोचनाधिकार (गाथा १०७ से गाथा ११२ तक)
नियमसार गाथा १०७ अब आलोचना अधिकार कहा जाता है। आलोचना अधिकार की पहली और नियमसार की १०७वीं गाथा इसप्रकार है -
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपजएहिं वदिरित्तं । अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि।।१०७ ।।
(हरिगीत) जो कर्म से नोकर्म से अर विभावगुणपर्याय से।
भी रहित ध्यावे आतमा आलोचना उस श्रमण के||१०७॥ जो श्रमण कर्म, नोकर्म और विभावगुणपर्याय से भी रहित आत्मा का ध्यान करता है; उस श्रमण को आलोचना होती है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यह निश्चय आलोचना के स्वरूप का कथन है।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर ही नोकर्म हैं और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र – ये आठ कर्म ही द्रव्यकर्म हैं।
कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्ध सत्ता के ग्राहक शुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनय से आत्मा इन द्रव्यकर्मों और नोकर्मों से रहित है। ____ मतिज्ञानादिक विभाव गुण हैं और नर-नारकादि व्यंजनपर्यायें विभावपर्यायें हैं; क्योंकि गुण सहभावी होते हैं; और पर्यायें क्रमभावी होती हैं। आत्मा इन सब गुण-पर्यायों से भिन्न है और स्वभावगुणपर्यायों से संयुक्त है।