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गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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( रोला )
जिनमुख से है विदित और थित है स्वरूप में । रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में || मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है ।
उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन || १५०|| जो सहजतत्त्व जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से प्रसिद्ध हुआ है, जो अपने स्वरूप में स्थित है, जो मुनिराजों के मनरूपी घट में सुन्दर रत्नदीपक के समान प्रकाशित हो रहा है, जो इस लोक में दर्शनमोह आदि कर्मों पर विजय प्राप्त किये हुए योगियों के द्वारा नमस्कार करने योग्य है तथा जो सुख का मंदिर है; उस सहजतत्त्व को मैं सदा अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करता हूँ ।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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“यहाँ सहजतत्त्व को नमस्कार किया गया है । सहजतत्त्व अर्थात् अपना शाश्वत् शुद्धस्वरूप, वही आदरणीय है । वह सहजतत्त्व श्री जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से प्रसिद्ध हुआ है। भगवान की वाणी में पुण्य-पापरूप विभावों से पार और शरीरादि से भिन्न स्वाभाविक सहज आत्मतत्त्व ही उपादेय बताया गया है । इसका निर्णय किए बिना सच्चा त्याग और चारित्र नहीं होता । "
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इस छन्द में भी उसी सहजतत्त्व की विशेषतायें बताते हुए वंदन किया गया है । अपने स्वरूप में स्थित और जिनेन्द्रभगवान की वाणी में समागत वह सहजतत्त्व मुनियों के मनरूपी घट में रत्नदीपक के समान जगमगा रहा है। जो अतीन्द्रिय सुख का मंदिर है; उस सहजतत्त्व को नमस्कार हो - ऐसा कहा गया है || १५० ॥
नौवाँ छन्द इसप्रकार है -
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७३-८७४