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नियमसार अनुशीलन ( पृथ्वी ) प्रनष्टदुरितोत्करं प्रहतपुण्यकर्मव्रजं प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम् । प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं प्रबृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रिं नुमः ।।१५१ ।।
(रोला) पुण्य-पाप को नाश काम को खिरा दिया है।
महल ज्ञान का अरे काम ना शेष रहा है। पुष्ट गुणो का धाम मोह रजनी का नाशका
तत्त्ववेदिजन नमें उसी को हम भी नमते॥१५१|| जिसने पापपुंज को नष्ट किया है, पुण्यकर्म के पुंज को नष्ट किया है, जिसने कामदेव को धो डाला है, जो प्रबल ज्ञान का महल है, जिसे तत्त्ववेत्ता भी प्रणाम करते हैं, जिसे कोई कार्य करना शेष नहीं है, जो कृतकृत्य है, जो पुष्ट गुणों का धाम है और जिसने मोहरात्रि का नाश किया है; उस सहजतत्त्व को हम नमस्कार करते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “आत्मा सहजतत्त्व है, उसने पुण्य-पाप समूह का नाश कर दिया है। पुण्य-पाप नये-नये उत्पन्न होते हैं और आत्मा तो अनूतन अर्थात् उत्पाद-विनाश से रहित ज्यों का त्यों है। उसमें पुण्य-पाप का अभाव है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सहजतत्त्व ने पुण्य-पाप का नाश किया है, वास्तव में तो त्रिकाली सहजात्मतत्त्व में पुण्य-पाप का अभाव ही है । उस त्रिकाली सहजतत्त्व ने काम, क्रोध, हास्यादि की वासनाओं को भी खदेड़ डाला है अर्थात् सहजतत्त्व में त्रिकाल कामवासनाओं का अभाव ही है।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७६-८७७