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गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार के विस्तार से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाशन मात्र है।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - _ “चैतन्यशक्ति की प्रतीति करके उसकी भावना में एकाग्र हो तो, मोह का नाश होकर परमात्मदशा प्रगट होती है। सहजतत्त्व त्रिकाल निजरस के फैलाव से प्रकाशित होता हुआ ज्ञान का प्रकाशन मात्र करता है। यह सब त्रिकालीतत्त्व की महिमा है। उसकी महिमा पूर्वक उसमें एकाग्र होने से पर्याय में सहज ज्ञानानन्ददशा प्रगट होती है। जो तत्त्व में निष्णात है, उसे ही यह परमात्मतत्त्व प्रतीति में आता है और पश्चात् उसमें लीन होने से चारित्र होता है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस छन्द में त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा को सहजतत्त्व से अभिहित किया है और उस त्रिकाली ध्रुव आत्मरूप सहजतत्त्व के गीत गाये हैं। कहा है कि उस सहजतेज ने मोहान्धकार का नाश कर दिया है, वह सहजतत्त्व ज्ञान के प्रकाशन के अतिरिक्त कुछ नहीं है और वह सदा जयवंत वर्तता है। तात्पर्य यह है कि उसका सर्वथा लोप कभी नहीं होता ।।१४८।। सातवाँ छन्द इसप्रकार है -
( पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं
भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम्। अथ प्रबलदुर्गवर्गदववह्निकीलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ।।१४९ ।।
(रोला) सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो।
भवसागर में इबों को नौका समान है। • संकटरूपी दावानल को जल समान जो।
भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को।।१४९।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७१-८७२