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नियमसार अनुशीलन ___ “मुनिराज को शुद्ध चारित्रस्वरूप अग्नि प्रगट हुई, वह पापरूपी जंगल को भस्म कर देगी। संयमियों को प्रत्याख्यान से अर्थात् स्वरूप में रागरहित एकाग्रता से शुद्ध चारित्र प्रगट होता है, इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि हे भव्यशार्दूल! तू अपने हृदय में जल्दी ही सहजतत्त्व को धारण कर, यह तत्त्व सहजसुख को देनेवाला है और मुनिराज को चारित्र का मूल है - ऐसे तत्त्व में एकाग्र होने से प्रत्याख्यान अर्थात् चारित्र होता है।"
इस छन्द में कहा गया है कि पापरूपी वृक्षों के घने जंगल को जलाने के लिए जो अग्नि के समान है; ऐसा शुद्ध-बुद्ध चारित्र संयमीजनों को प्रत्याख्यान से होता है। इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम शीघ्र ही अपनी बुद्धि को आत्मतत्त्व में लगाओ; क्योंकि वह आत्मतत्त्व सहजसुख देनेवाला है और मुनिजनों के चारित्र का मूल है ।।१४७।। छठवाँ छन्द इसप्रकार है -
( मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धेः
हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकारं स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फूर्तिमात्रम् ।।१४८॥
(रोला) जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में।
अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है। सहजतत्त्व निज के प्रकाशसेज्योतित होकर।
अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है।।१४८|| तत्त्व में निष्णात बुद्धिवाले जीवों के हृदयकमलरूप अभ्यन्तर में जो सहज आत्मतत्त्व स्थित है; वह सहज आत्मतत्त्व जयवंत है। उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है और वह सहजतेज निज रस १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७०-८७१