SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार १३१ ___ “अहो! आनन्दमूर्ति सुख का निधान तो आत्मा है और वही सुख सिद्धभगवन्तों की पर्याय में प्रगट हुआ है – इस बात की जिसे खबर नहीं है, वह तो विषयों की इच्छा से दुःखी होकर भी विषयों को चाहता ही है; परन्तु जिन विद्वानों ने इस बात को जाना है, वे भी इस चैतन्य की भावना क्यों नहीं भाते और भोगों की ही भावना क्यों भाते हैं ?" ___ इस छन्द में यह कहा गया है कि जो जगत में प्रसिद्ध अतीन्द्रिय आनन्द है, वह तो निर्मल गुणवाले सिद्धपुरुषों में ही पाया जाता है। ऐसी स्थिति होने पर भी विद्वज्जन न मालूम क्यों कामबाण से घायल होकर भी, उसी की वांछा करते हैं? यह बड़े आश्चर्य की बात है ।।१४६।। पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है - ( मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तत्त्वं शीघ्रं कुरु तव मतौ भव्यशार्दूल नित्यं यत्किंभूतं सहजसुखदंशीलमूलं मुनीनाम् ।।१४७ ।। (रोला) अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है। ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यख्यान में || इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू। आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले ॥१४७।। जो दुष्ट पापरूपी वृक्षों की घनी अटवी को जलाने के लिए अग्निरूप हैं - ऐसा प्रगट शुद्ध-बुद्ध सत्चारित्र संयमियों को प्रत्याख्यान से होता है; इसलिए हे भव्यशार्दूल तू शीघ्र अपनी बुद्धि में आत्मतत्त्व को धारण कर; क्योंकि वह तत्त्व सहजसुख को देनेवाला और मुनिवरों के चारित्र का मूल है। स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy