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________________ १३० नियमसार अनुशीलन इसप्रकार के शुद्ध चारित्रमूर्ति मुनियों को सतत् प्रत्याख्यान होता है।' जो शुद्धात्मस्वरूप चैतन्य में लीन हुए, उन्हें तो शुद्ध चारित्रमूर्ति कहा; और जिन्हें आत्मभान नहीं है, उन्हें परसमय मिथ्यादृष्टि कहा। उनका पुनः पुनः घोर संसार में भ्रमण होता है और ध्रुव चैतन्य की भावना से संसार भ्रमण मिटता है।" इस छन्द में भी यही कहा गया है कि जिनकी बुद्धि अपने भगवान आत्मा में निष्ठित है; वे तो निरंतर प्रत्याख्यान में ही हैं; किन्तु जिनकी बुद्धि अन्य मिथ्यामान्यताओं में निष्ठित है; वे अनंतकाल तक संसारसागर में ही गोते लगाते रहेंगे; क्योंकि उनके प्रत्याख्यान नहीं है ।।१४५।। चौथा छन्द इसप्रकार है - (शिखरिणी) महानंदानंदोजगति विदितः शाश्वतमयः स सिद्धात्मन्युच्चैर्नियतवसतिर्निर्मलगुणे। अमी विद्वान्सोपिस्मरनिशितशस्त्रैरभिहताः कथं कांक्षत्येनं बतकलिहतास्तेजडधियः॥१४६॥ (रोला) जो शाश्वत आनन्द जगतजन में प्रसिद्ध है। वह रहता है सदा अनूपम सिद्ध पुरुष में। ऐसी थिति में जड़बुद्धि बुधजन क्यों रे रे। कामबाण से घायल हो उसको क्यों चाहे ?||१४६|| जो जगत प्रसिद्ध शाश्वत महानन्द है; वह निर्मल गुणवाले सिद्धात्मा में अतिशयरूप से रहता है। ऐसी स्थिति होने पर भी अरे रे ! विद्वान लोग भी काम के तीक्ष्ण बाणों से घायल होते हुए भी उसी की इच्छा क्यों करते हैं ? आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८६८ २. वही, पृष्ठ ८६८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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