SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२९ गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इसलिए मैं मोह को जीतकर निरन्तर उस परमात्मतत्त्व की भावना भाता हूँ- ऐसी भावना, वह प्रत्याख्यान है।" इस कलश में परमतत्त्व की भावना भाने की प्रेरणा दी है; क्योंकि यह परमतत्त्व संसारसागर से पार उतारने के लिए नौका के समान है। जिसप्रकार नाव के सहारे से विशाल समुद्र से भी पार पा सकते हैं; उसीप्रकार परमतत्त्व की भावना से भी संसारसमुद्र का किनारा पाया जा सकता है।।१४४|| तीसरा छन्द इसप्रकार है - ( मंदाक्रांता ) प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिनिष्टबुद्धेः । नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा ।।१४५ ।। (रोला) भ्रान्ति नाश से जिनकी मति चैतन्यतत्त्व में। निष्ठित है वे संत निरंतर प्रत्याख्यान में।। अन्य मतों में जिनकी निष्ठा वे योगीजन। भ्रमे घोर संसार नहीं वे प्रत्याख्यान में ||१४५|| भ्रान्ति के नाश से जिसकी बुद्धि सहज परमानन्दमयी चेतनतत्त्व में निष्ठित है; ऐसे शुद्धचारित्रमूर्ति को निरन्तर प्रत्याख्यान है । परसमय में अर्थात् अन्य दर्शन में जिनकी निष्ठा है; उन योगियों को प्रत्याख्यान नहीं होता है; क्योंकि उन्हें तो बारंबार घोर संसार में परिभ्रमण करना है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "शुद्ध चैतन्यतत्त्व का भान करके जिसने भ्रान्ति का नाश किया है, और जिसकी बुद्धि त्रिकाल सहज परमानन्दयुक्त चैतन्य में एकाग्र है - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८६७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy