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नियमसार अनुशीलन इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि प्रत्येक मुनिराज को कर्ममल से मुक्त होने के लिए ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा की भावना भानी चाहिए तथा इसप्रकार सोचना चाहिए कि मैं तो वह हूँ, जो भविष्यकाल के सांसारिक भावों से निवृत्त है।
चूँकि यहाँ प्रत्याख्यान की चर्चा चल रही है। इसलिए यहाँ भविष्य काल के संसारिक भावों से निवृत्त होने की बात कही है।।१४३।। दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्वद्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः। तत्त्वत: परमतत्त्वमजसंभावयाम्यहमतोजितमोहः ॥१४४॥
(रोला) परमतत्त्व तो अरे भयंकर भव सागर की।
नौका है- यह बात कही है परमेश्वर ने|| इसीलिए तो मैं भाता हूँ परमतत्त्व को।
अरे निरन्तर अन्तरतम से भक्तिभाव से ||१४४|| 'यह परमतत्त्व भगवान आत्मा भयंकर संसार सागर की दैदीप्यमान नाव है' - ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। इसलिए मैं मोह को जीतकर निरन्तर परमतत्त्व को तत्त्वत: भाता हूँ।
इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यह परमचैतन्य तत्त्व संसार समुद्र से पार होने के लिए सुन्दर नौका के समान है। इस चैतन्य नौका का आश्रय लेने से आत्मा घोर संसार समुद्र से पार हो सकता है। चिदानन्द आत्मतत्त्व को जाने बिना पुण्य-पाप में उलझ जावे तो संसार से नहीं तिर सकता; परन्तु यहाँ परम चैतन्यतत्त्व तो ऐसी नाव है कि उसकी श्रद्धा-ज्ञान और उसमें एकाग्रता करने से घोर संसार समुद्र का किनारा आ जाता है। एकमात्र निज परमात्मतत्त्व; अपने को संसार से तारने के लिए नौका समान है - ऐसा