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गाथा १०६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
( रथोद्धता ) भाविकालभवभावनिवृत्त: सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः । भावयेदखिलसौख्यनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ।। १४३ ।। ( रोला )
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भाविकाल के भावों से तो मैं निवृत्त हूँ । इसप्रकार के भावों को तुम नित प्रति भावो ॥ निज स्वरूप जो सुख निधान उसको हे भाई!
यदि छूटना कर्मफलों से प्रतिदिन भावो || १४३ || 'जो भविष्यकाल के सांसारिक भावों से निवृत्त है, वह मैं हूँ।' इसप्रकार के भावों को, कर्मफल से मुक्त होने के लिए, पूर्ण सुख के निधान निर्मल निजस्वरूप को सभी मुनिराजों को नित्य भाना चाहिए।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "भावलिंगी वीतरागी मुनिराज कहते हैं कि मैं तो भव के भाव से रहित हूँ और भविष्य में भी मुझे भव का भाव नहीं होगा । पुण्य-पाप इत्यादि सभी विभाव भाव मलिन हैं; इनसे मुक्त होने के लिए परिपूर्ण आनन्द के निधान निजस्वरूप भगवान आत्मा की प्रतिदिन भावना भाना चाहिए। मैं तो चैतन्य ज्ञायक हूँ - ऐसा निर्णय करके उसमें जितनी एकाग्रता होगी, उतना प्रत्याख्यान है ।
भूतकाल के दोषों का प्रतिक्रमण होता है। वर्तमानकाल की आलोचना और भविष्यकाल का प्रत्याख्यान होता है; परन्तु चिदानन्द स्वरूप निजात्मा त्रिकाल दोषरहित शुद्ध है, उसकी दृष्टि करके उसमें एकाग्र होने से त्रिकाल के दोषों का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना हो जाती है - इसलिए कहा है कि निज परमात्मतत्त्व की प्रतिदिन भावना भाना – यही मुक्ति का कारण है । ”
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८६६-८६७