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________________ नियमसार गाथा १०६ नियमसार शास्त्र के इस निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार की यह अंतिम गाथा है, इसमें अधिकार का उपसंहार किया गया है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरि, सो संजदो णियमा ।।१०६ ।। (हरिगीत) जो जीव एवं करम के नित करे भेदाभ्यास को। वह संयमी धारण करे रे नित्य प्रत्याख्यान को॥१०६|| इसप्रकार जो सदा जीव और कर्म के भेद का अभ्यास करता है, वह संयमी नियम से प्रत्याख्यान धारण करने में समर्थ है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं“यह निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार के उपसंहार का कथन है। श्रीमद् अरहंत भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए परमागम के अर्थ का विचार करने में समर्थ जो परमसंयमी; अनादि बन्धनरूप अशुद्ध अन्त:तत्त्व और कर्म पुद्गल का भेद, भेदाभ्यास के बल से करता है; वह परमसंयमी निश्चयप्रत्याख्यान और व्यवहारप्रत्याख्यान को स्वीकार करता है।" ___ उक्त गाथा और टीका में निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार का उपसंहार करते हुए मात्र इतना ही कहा गया है कि जिनेन्द्रकथित आगम के मर्मी मुनिराज तो भगवान आत्मा और पौद्गलिक कर्म के बीच जो भेद है, उसे भलीभाँति जानकर निरन्तर उसी के अभ्यास में रहते हैं; क्योंकि वे निश्चय और व्यवहारप्रत्याख्यान को स्वीकार करनेवाले संत हैं ।।१०६|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज पूरे अधिकार के उपसंहार में नौ छन्द लिखते हैं; जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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