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गाथा १०५ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
१२५ यह प्रत्याख्यान निरन्तर जयवंत है। यह प्रत्याख्यान; उत्कृष्ट संयम को धारण करनेवाले वीतरागी मुनिराजों को मुक्तिसुख को प्राप्त करानेवाला है, सहज समतादेवी के सुन्दर कानों का उत्कृष्ट आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी प्रिय स्त्री के अतिशय यौवन का कारण है।
इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे हुए शुद्ध चैतन्य तत्त्व का भान करके, जो उसमें स्थिर होते हैं; उन मुनिवरों को निश्चयप्रत्याख्यान होता है। उन परमसंयमी मुनिवरों को वह प्रत्याख्यान मोक्ष का कारण है। वही प्रत्याख्यान समतादेवी के कर्ण का सुन्दर आभूषण है। लौकिक अनुकूलता एवं प्रतिकूलता सभी के प्रति मुनिराजों को समता है। मुनियों की सहज समता का आभूषण यह निश्चयप्रत्याख्यान है।
हे मुनि! जो तेरे स्वरूप के आनन्द में झूलती हुई दीक्षारूपी प्रिय स्त्री, उसके अतिशय यौवन का कारण यह प्रत्याख्यान है अर्थात् स्वरूप में लीनतारूप वीतराग चारित्र से तेरी दीक्षा की शोभा है। ___मुनि को प्रिय में भी प्रिय तो दीक्षा-वीतरागीचारित्र है। उस दीक्षा में वृद्धि लाने के लिये कारणरूप यह निश्चयप्रत्याख्यान है। शांतभाव होकर स्वरूप में ठहर जाय – ऐसी मुनिराजों की दशा होती है और उन्हें ही ऐसा प्रत्याख्यान होता है।" __इस छन्द में निश्चयप्रत्याख्यान के महत्त्व को दर्शाया गया है, उसके गीत गाये हैं। कहा गया है कि वह निरंतर जयवंत वर्तता है।। ___ यह निश्चयप्रत्याख्यान वीतरागी सन्तों को अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त कराने वाला है, समतादेवी के कानों का उत्कृष्ट आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी पत्नी को सदा युवा रखने का कारण है। इसलिए हे मुनिजनो! तुम इस निश्चयप्रत्याख्यान को अत्यन्त भक्तिभाव से धारण करो ।।१४२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८६२