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नियमसार अनुशीलन
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पत्थर जैसा है, उनसे विरक्त होकर चैतन्य का आश्रय लेना; वह प्रत्याख्यान है । ऐसा प्रत्याख्यान भव्यजीवों को उपादेय है।
अज्ञानी को जो आहार आदि के त्याग का शुभभाव होता है, वह वास्तविक प्रत्याख्यान नहीं है; क्योंकि शुद्धतारहित अकेला शुभभाव तो अंधपाषाण समान है। जिसे संसार - शरीर के प्रति प्रेम है, उसे तो मिथ्यात्व की भी पहिचान नहीं है। २"
स्वामीजी के उक्त कथन से यह बात स्पष्ट ही है कि मिथ्यात्व के क्षयोपशम, उपशम या क्षय बिना चारित्रमोह के क्षयोपशम की बात औपचारिक व्यवहार कथन ही है, परमार्थ से तो ऐसा संभव ही नहीं है।
निश्चयप्रत्याख्यान और निश्चयपूर्वक होनेवाला व्यवहारप्रत्याख्यान तो मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभाव में मुनिराजों के ही होता है। चतुर्थ और पंचम गुणस्थान के श्रावकों को भी भूमिकानुसार यथासंभव प्रत्याख्यान हो सकता है, पर मिथ्यादृष्टियों का प्रत्याख्यान तो कथनमात्र है ।। १०५ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार है( हरिणी )
जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं परमयमिनामेतन्निर्व्वाणसौख्यकरं परम् ।
सहजसमतादेवीसत्कर्णभूषणमुच्चकैः
मुनिप शृणुते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ।। १४२ ।। ( हरिगीत )
अरे समतासुन्दरी के कर्ण का भूषण कहा । और दीक्षा सुन्दरी की जवानी का हेतु जो ॥
अरे प्रत्याख्यान वह जिनदेव ने जैसा कहा ।
निर्वाण सुख दातार वह तो सदा ही जयवंत है ॥ १४२ ॥
हे मुनिवर ! ध्यान से सुनो। जिनेन्द्रदेव के मन में उत्पन्न होनेवाला
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८५९
२. वही, पृष्ठ ८६०