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नियमसार अनुशीलन
वस्तुत: ऐसा समताभाव ही निश्चयप्रत्याख्यान है । अत: टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मैं इसप्रकार के समताभाव को धारण करता हूँ, उसकी भावना करता हूँ।। १४० ॥
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दूसरा छन्द इसप्रकार है.
( हरिणी ) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा । परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमनः प्रियमैत्रिका मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि । । १४१ ।। ( हरिगीत )
जो योगियों को महादुर्लभ भाव अपरंपार है । त्रैलोक्यजन अर मुनिवरों का अनोखालंकार है ।। सुखोदधि के ज्वार को जो पूर्णिमा का चन्द्र है। दीक्षांगना की सरखी यह समता सदा जयवंत है ॥ १४१ ॥ जो योगियों को भी दुर्लभ है, आत्माभिमुख सुख के सागर में ज्वार लाने के पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है, परम संयमी पुरुषों की दीक्षारूपी स्त्री के मन को लुभाने के लिए सखी के समान है और मुनिवरों / तथा तीनलोक का अतिशयकारी आभूषण है; वह समताभाव सदा जयवंत है ।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" राग-द्वेष, पुण्य-पाप की विषमतारहित स्वभाव में रमणतारूप समता मुनि को भी दुर्लभ है तो फिर अज्ञानी को सच्ची समता कैसे हो सकती है ?
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जिसप्रकार समुद्र के ज्वार में चन्द्रमा निमित्त है, उसीप्रकार आत्मा के जो चैतन्य ज्ञानानन्दशक्ति अन्तरस्वभाव में भरी पड़ी है, उसे व्यक्त पर्याय में प्रगट करने के लिये समताभावरूपी चन्द्रमा के समान है । '
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८५०