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गाथा १०४ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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“चिदानन्दस्वरूप आत्मा की प्रतीतिपूर्वक रमणता करके पूर्ण निर्मल शुद्धदशा प्रगट करना मुक्ति है । हे भव्य ! यदि तुझे वह मुक्त दशा प्रगट करनी हो तो स्वभाव में रमणतारूप अन्तर समता प्रगट कर; वह समता मुक्तिरूपी स्त्री अर्थात् आत्मा की परिपूर्ण शुद्धदशा के प्रति भ्रमर समान है। जैसे पद्मिनी स्त्री के पीछे भ्रमर फिरते हैं, वैसे ही मुक्ति अंगना ( मुक्तिदशा) प्राप्त करने के लिये समता, भ्रमर के समान उसके पीछेपीछे फिरती है अर्थात् समता भ्रमर समान मुक्ति के प्रति रत है ।
राज्य के लिये, देश के लिए, लोक के लिये सहन करना समा नहीं है। मैं शुद्ध सच्चिदानन्द ज्ञानमूर्ति हूँ - ऐसा भान करके स्वरूप में - परम उपशमरस में ठहरने पर पुण्य-पाप की वृत्ति का उत्थान ही न होना सच्ची समता है, वही मोक्षसुख का मूल है ।
स्वभाव में लीनतारूप यह समता पुण्य-पापरूपी - दुर्भावनारूपी अंधकार को नाश करने के लिये चन्द्र के प्रकाश समान है । यह मेरा हितकारक और यह मेरा बुरा करनेवाला है - ऐसी कल्पना दुर्भावना है । वास्तव में तो भला-बुरा करनेवाला दूसरा कोई है ही नहीं । विपरीत मान्यता तेरा बुरा करनेवाली है और सम्यक् मान्यता तेरा भला करने वाली है। "
इस छन्द में संतों को सदा संमत समताभाव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है, उसकी महिमा से परिचित कराया गया है, उसे मोक्षसुख का मूल कारण कहा गया है । उसकी उपमा सुन्दर स्त्रियों के ऊपर मंडरानेवाले भौरों से और अन्धकार को नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रकाश से दी गई है; क्योंकि इस समता से मुक्तिरूपी स्त्री से समागम होता है और दुर्भावनारूपी अंधकार नष्ट हो जाता है।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८४६