________________
नियमसार अनुशीलन
११८
नहीं है। चैतन्य त्रिकाली स्वभाव ही आत्मा का सच्चा कुल है और उसकी समता कुलदेवी है।
हे नाथ! मैं चैतन्यस्वभावी आत्मा हूँ, पुण्य-पाप की कृत्रिम उपाधिरहित मेरा स्वरूप है - ऐसे आत्मा का भान करके उसमें ठहरना, वह हमारे कुल की रीति है - अनन्त तीर्थंकरों के कुल की रीति है। "
इस छन्द में रूपक अलंकार के माध्यम से यह कहा गया है कि है आत्मन् ! तुझमें मोह का नाश करने के लिए स्वाभाविक बल है। इसलिए तू प्रमाद छोड़कर उस बल से मोह राजा को जीतने के लिए सम्यग्ज्ञानरूपी चक्ररत्न को प्राप्त कर और उसका प्रयोग कर, इससे ही मोह राजा अपने अज्ञानमंत्री के साथ नाश को प्राप्त होगा ॥५७॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज स्वयं दो छन्द लिखते हैं; जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है -
( वसंततिलका )
मुक्त्यंगनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम् । संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां
या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।। १४० ।। ( हरिगीत )
मुक्त्यांगना का भ्रमर अर जो मोक्षसुरव का मूल है। दुर्भावनातमविनाशक दिनकरप्रभा समतूल है । संयमीजन सदा संमत रहें समताभाव से ।
मैं भाऊँ समताभाव को अत्यन्त भक्तिभाव से || १४० ||
जो समताभाव; मुक्तिरूपी स्त्री के प्रति भ्रमर के समान है, मोक्ष के सुख का मूल है, दुर्भावनारूपी अंधकार के नाश के लिए चन्द्रमा के प्रकाश के समान है और संयमियों को निरंतर संमत है; टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि मैं उस समताभाव को अत्यंत भक्तिभाव
भाता हूँ ।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८४४-८४५