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गाथा १०४ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
( वसंततिलका )
मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्नः
स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमंग गृहाण तूर्णमज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ।। ५७ ।। ' (रोला )
हे भाई! तुम महासबल तज कर प्रमाद अब । समतारूपी कुलदेवी को याद करो तुम ।। अज्ञ सचिव युत मोह शत्रु का नाशक है जो ।
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ऐसे सम्यग्ज्ञान चक्र को ग्रहण करो तुम ॥५७॥ हे भाई ! स्वाभाविक बल सम्पन्न तुम प्रमाद को छोड़कर उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवी का स्मरण करके अज्ञानमंत्री सहित मोहराजारूप शत्रु का नाश करनेवाले सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र को शीघ्र ग्रहण करो । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं.
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" आत्मा का बल बाहर से नहीं लाना पड़ता, वह तो स्वयं ही स्वाभाविक बल का पिण्ड है ।
हे भाई! ऐसे अनन्त स्वाभाविक बलवाला तू है, इसलिये आलस्य त्याग। अब अवसर आ गया है, अतः स्वभाव के भान सहित रमणतास्वरूप अपनी उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवी को याद करके शान्त उपशम भाव का रटन करके, अज्ञान मंत्री सहित मोहराजा को नाश करनेवाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र को ग्रहण कर, अर्थात् स्वभाव में एकाग्र होकर अज्ञानमंत्री और मोहराजा का नाश कर ।
लोग बाहर में कुलदेवी को मानते हैं, वह सच्ची कुलदेवी नहीं है। ऐसे भ्रम को पोषण करके जीव संसार में भटक भटक कर मरता है । सच्ची कुलदेवी तो चैतन्य आत्मा की समता है, अन्य कोई कुलदेवी १. अमृताशीति, श्लोक २१
२. नियमसार प्रवचनं, पृष्ठ ८४४
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