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नियमसार अनुशीलन परमसमाधि का आश्रय करते हैं । स्त्री, पुत्र, मकान, लक्ष्मी आदि बाह्य पदार्थ के लक्ष से होनेवाले भाव को उपाधि कहते हैं, शरीर में रोग होने पर उसकी तरफ लक्ष जानेवाले भाव को व्याधि कहते हैं तथा अन्दर में पुण्य-पाप के अनेक प्रकार के होनेवाले विकल्पों को आधि कहते हैं। उन आधि-व्याधि-उपाधि के भावों से रहित सच्चिदानन्द आत्मा का भान करके उसमें एकाग्र होकर ठहरने को समाधि कहते हैं । इस समाधि का नाम चारित्र है। __ लौकिकजन प्राणायामादि जड़ की क्रिया को समाधि मानते हैं, परन्तु वह तो जड़ हो जाने का मार्ग है, वह आत्मा की सच्ची समाधि नहीं है, उससे आत्मा की शान्ति रंचमात्र भी प्रगट नहीं होती।
वास्तव में तो आधि-व्याधि-उपाधि से रहित ज्ञानानन्द शान्तस्वभावी मैं हूँ – ऐसे आत्मा का यथार्थ भान करके उसमें एकाग्रता करना ही परम समाधि है।"
इस गाथा में आचार्यदेव द्वारा अत्यन्त सरल व सीधी-सपाट भाषा में यह कहा गया है कि मेरा तो सभी जीवों के प्रति समताभाव है। मेरा किसी से कोई वैर-विरोध नहीं है। मेरी भावना तो यही है कि मैं सभी प्रकार की आशा-आकांक्षा को छोड़कर समाधि को प्राप्त करूँ। यह आचार्यदेव ने उत्तमपुरुष में सभी भावलिंगी सन्तों की ओर से कहा है। यह न केवल उनकी बात है, अपितु सभी सन्तों की यही भावना होती है।
मानसिक विकल्पों को आधि, शारीरिक विकल्पों को व्याधि और परपदार्थों संबंधी विकल्पों को उपाधि कहते हैं। उक्त तीनों प्रकार के विकल्पों से मुक्त होकर निर्विकल्पदशा को प्राप्त करना ही समाधि है। सभी सन्तों की यह समाधिस्थ होने की भावना ही निश्चयप्रत्याख्यान है।।१०४॥
इसके बाद तथा चोक्तं श्री योगीन्द्रदेवैः - तथा श्री योगीन्द्रदेव ने भी कहा है - ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८४३
२. वही, पृष्ठ ८४४