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गाथा १०४ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
११५ __ आचार्यदेव स्वयं कहते हैं कि जिसने श्रद्धा और स्थिरता – इन दोनों अपेक्षाओं से इन्द्रियों के व्यापार को छोड़ा है – ऐसे मुझे सर्वजीवों के प्रति समता है। हम तो ज्ञातादृष्टा हैं। तत्त्व का स्वीकार करनेवाले ज्ञानी हों अथवा सत्य की निन्दा करनेवाले अज्ञानी हों - दोनों के प्रति हमें राग-द्वेष नहीं है । जिन्हें पुण्य-पाप के विकार से रहित शुद्ध ज्ञानानन्द आत्मा का साक्षात्कार हुआ है - ऐसे हमारे जैसे धर्मात्मा के प्रति भी हमें राग नहीं है। तत्त्व का विरोधी हो तो उसके प्रति भी यह ऐसा क्यों? इसप्रकार का विकल्प भी हमारे मन में नहीं उठता। वे अपनी योग्यता से चाहे जैसे परिणमे, उससे हमें कोई राग-द्वेष नहीं है।
प्रश्न :- अन्य सभी के प्रति तो समता हो, परन्तु किसी एक व्यक्ति के प्रति यदि कुछ खटक रह जावे तो?
उत्तर :- जिसे एक व्यक्ति के कारण खटका है, उसे सबके साथ खटका है । ज्ञानी को जो कुछ अस्थिरता के कारण द्वेष होता है, वह अपने अपराध से है, सामनेवाले व्यक्ति के कारण से नहीं। अस्थिरता का अपराध किसी अन्य व्यक्ति के कारण बनता है - यह मान्यता यथार्थ नहीं है । यदि ऐसा हो तो उसका लक्ष छूटकर आत्मा में कभी भी स्थिर नहीं हुआ जा सकता।
त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेव के दर्शन हों तो उनके कारण हमें भक्ति का राग नहीं होता और कोई सर फोड़नेवाला वैरी हो तो उसके प्रति हमें द्वेष नहीं आता । हम तो हमारे ज्ञानस्वभाव में – शान्त उपशमरसस्वरूप समता में हैं - इसे भगवान ने प्रत्याख्यान कहा है।
देखो ! आचार्यदेव डंके की चोट कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! तुम भी हमारे जैसे ही हो। तुम्हारे में भी अन्दर ज्ञानानन्द चैतन्य की समता शक्ति में पड़ी है, उसका तुम निर्णय करो। ___चाहे जैसे संयोग हों, तथापि हमें उनके प्रति अनुकूलताप्रतिकूलता का भाव नहीं आता। हम तो आधि-व्याधि-उपाधिरहित १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८४० २. वही, पृष्ठ ८४२