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गाथा १०४ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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उस
मुनियों ने अपने आत्मा का भान करके दीक्षा प्रगट की है, दीक्षारूपी वीतरागी - परिणति को अभ्यन्तर समता अति प्रिय है ।
वह अभ्यंतर समता मुनिवरों के समूह को ही नहीं, अपितु तीन लोक को भी अतिशयपने आभूषणस्वरूप है । वह समता सदा जयवन्त हो । ' मुनिवर कहते हैं कि वह समता जयवन्त वर्तती है अर्थात् ऐसी समतावाले निर्ग्रन्थ मुनिवरों का विरह कभी पड़ता नहीं - इसलिये वह जयवन्त वर्तती है । २”
इस छन्द में भी समताभाव के ही गीत गाये हैं। योगियों को दुर्लभ यह समताभाव अतीन्द्रिय आनन्द के सागर में ज्वार लाने के लिए पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है।
यह तो आप जानते ही हैं कि पूर्णमासी के दिन सागर में ज्वार आता है और अमावस्या के दिन भाटा होता है ।
तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार पूर्णमासी के चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ता है, उसमें पानी की बाढ आती है और अमावस्या के दिन चन्द्रमा के वियोग में सागर शान्त हो जाता है, उदास हो जाता है, पानी किनारे से दूर चला जाता है; उसीप्रकार आत्मारूपी सागर में समतारूपी पूर्णचन्द्र के उदय होने पर अतीन्द्रिय आनन्दरूपी जल की बीढ आ जाती है ।
यह समता दीक्षारूपी पत्नी की सखी है तथा सन्तों और सभी लोगों का आभूषण है।
अतः आत्मार्थी भाई-बहिनों को समता की शरण में जाना चाहिए; क्योंकि यह समता ही निश्चयप्रत्याख्यान है ।। १४१ ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८५१
२ . वही, पृष्ठ ८५१
अन्तर में विद्यमान ज्ञानानन्दस्वभावी त्रैकालिक ध्रुव आत्मतत्त्व ही परमसत्य है । उसके आश्रय से उत्पन्न हुआ ज्ञान, श्रद्धान एवं वीतराग • परिणति ही उत्तमसत्यधर्म है । -धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ- ८०
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