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________________ १०२ नियमसार अनुशीलन अपनी-अपनी आजीविका आदि को साधने के लिए तुझे धूर्तों की टोली मिली है अर्थात् यदि तू उनके मोह में रुकेगा तो तेरा आत्मा ठगा जायेगा, इसलिए तू अपने एकत्वस्वरूपी आत्मा को जान । __ इसके बिना प्रत्याख्यान नहीं हो सकता । अपने आत्मा के अतिरिक्त यदि तू अन्यत्र रुक जायेगा तो तेरी स्वरूपलक्ष्मी लुट जायेगी, इसलिए निमित्तरूप में स्त्री-पुत्रादि को धूर्तों की टोली कहा है। तेरा आत्मा अनादिकाल से स्वरूप को चूककर संसार में जन्ममरण कर रहा है, उसमें कोई तुझे शरणभूत नहीं है।' यहाँ जो कुटुम्बीजनों को धूर्तों की टोली कहा है; वह उनसे द्वेष कराने के लिए नहीं कहा है; उनसे एकत्व-ममत्व तोड़ने के लिए कहा है। वस्तुत: बात तो यह है कि वे तेरा सहयोग कर नहीं सकते। यदि वे तेरा सहयोग करना चाहें, तब भी नहीं कर सकते; क्योंकि प्रत्येक जीव को अपने किये कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। कोई जीव किसी दूसरे का भला-बुरा कर ही नहीं सकता। __ किसी दूसरे के भरोसे बैठे रहना समझदारी का काम नहीं है। इसलिए अपनी मदद आप करो - यही कहना चाहते हैं आचार्यदेव।।५५।। इसके बाद एक छन्द टीकाकार स्वयं लिखते हैं, जो इसप्रकार है - ( मंदाक्रांता) एको याति प्रबलदुरघाञ्जन्म मृत्युंच जीवः कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयंचारुसौख्यंचदुःखम् । भूयोभुंक्तेस्वसुखविमुखःसन्सदा तीव्रमोहादेकंतत्त्वं किमपि गुरुतःप्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ।।१३७।। (वीर) जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है। तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है। जनम-मरण के दुःख अनंते इसने अबतक प्राप्त किये। गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है।।१३७॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१८-८१९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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