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गाथा १०१ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
इसलिए पर से सहयोग की आकांक्षा छोड़कर हमें स्वयं अपने कल्याण के मार्ग में लगना चाहिए।।५४||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज उक्तं च श्री सोमदेवपंडितदेवै: - पण्डित सोमदेव के द्वारा भी कहा गया है – ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है -
( वसंततिलका ) एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च
भोक्तुं स्वयंस्वकृतकर्मफलानुबन्धम् । अन्योनजातु सुखदुःखविधौ सहायः । स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते॥५५॥
(वीर) जनम-मरण के सुख-दुख तुमने स्वयं अकेले भोगे हैं। मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं। यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से।
लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ।।५।। स्वयं किये गये कर्म के फलानुबंध को स्वयं भोगने के लिए तू अकेला ही जन्म और मृत्यु में प्रवेश करता है। अन्य कोई स्त्री-पुत्रमित्रादि सुख-दुःख में सहायक नहीं होते, साथी नहीं होते। ये सब ठगों की टोली मात्र अपनी आजीविका के लिए तुझे मिली है।
स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - _ "अहो! यहाँ आत्मा का एकत्वस्वरूप बताते हुए वैराग्यवर्णन करते हैं। स्वयं जैसा शुभाशुभ कर्म किया, उसके फल को भोगने के लिए जीव अकेला ही जन्म और मरण में प्रवेश करता है। ___ सैकड़ों हरिणों की टोली में सिंह आकर एक को पकड़े, वहाँ अन्य सभी क्या करें? उसीप्रकार आत्मा को भी जन्म-मरण में कोई मातापिता, स्त्री-पुत्र आदि बिल्कुल सहायभूत नहीं होते। यह तो सब १. यशस्तिलकचंपूकाव्य, द्वितीय अधिकार, श्लोक ११९ २. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१८