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गाथा १०१ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
जीव अकेला ही प्रबल दुष्टकर्मों के फल जन्म और मरण को प्राप्त करता है। तीव्र मोह के कारण आत्मीय सुख से विमुख होता हुआ कर्मद्वन्द्व से उत्पन्न सुख-दुःख को यह जीव स्वयं बारंबार अकेला ही भोगता है तथा किसी भी प्रकार से सद्गुरु द्वारा एक आत्मतत्त्व प्राप्त करके अकेला ही उसमें स्थित होता है।
स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"चैतन्य के सहज सुख को चूककर जीव अकेला ही पुण्य-पाप के फलरूप सुख-दुःख को भोगता है। चैतन्यसुख से विमुख होनेवाले को ही पुण्यफल मिष्ट लगता है। चैतन्य को चूककर स्वर्गसुख और नरकदुःख को पुनः पुनः जीव अकेला ही भोगता है।
जीव अकेला ही गुरुगम द्वारा अपनी पात्रता से जिस-तिस प्रकार एक चैतन्यतत्त्व को पाकर उसमें लीन होता है । तुझे तू अकेला ही रुचे, जैसे भी बने ऐसा करके चैतन्यतत्त्व को प्राप्त कर । जगत से तुझे क्या काम है? गुरुगम से चैतन्यतत्त्व के पाने में तू अकेला है और उसमें स्थिर रहकर प्रत्याख्यान करने में भी अकेला है।'' ___ इस छन्द में भी यही कहा गया है कि यह आत्मा अनादिकालीन तीव्र मोह के कारण आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय सुख से विमुख होकर कर्मजन्य सुख-दुःखों को अकेला ही भोग रहा है।
यदि इसे सद्गुरु के सत्समागम से आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो जावे तो यह जीव अकेला ही उसमें स्थापित हो सकता है।
स्वयं में स्थापित होना निश्चयप्रत्याख्यान है। इस निश्चयप्रत्याख्यान का कार्य इस जीव को स्वयं ही करना होगा; क्योंकि जब जन्म-मरण में जीव अकेला ही रहता है, संसार परिभ्रमण और मुक्ति प्राप्त करने में भी अकेला ही रहता है तो फिर निश्चयप्रत्याख्यान में किसी का साथ होना कैसे संभव है ?।।१३७।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८२०
२. वही, पृष्ठ ८२०