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गाथा १०० : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
इस छन्द में भी मूल गाथा, उसकी टीका और उद्धृत छन्दों में जो बात कही गई है, उसी को दुहराया गया है। अन्त में कहा गया है कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए एक भगवान आत्मा ही एकमात्र आधार है; अन्य कोई पदार्थ नहीं। नहीं है, नहीं है; दो बार लिखकर अपनी दृढता को प्रदर्शित किया है। साथ में जगत को भी चेताया है कि यहाँ-वहाँ भटकने से क्या होगा, एकमात्र निज भगवान आत्मा की शरण में आओ, उसमें अपनापन स्थापित करो; उसे ही निजरूप जानो, उसमें ही जम जावो, रम जावो ।।१३५।। दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(पृथ्वी) क्वचिल्लसति निर्मलंक्वचन निर्मलानिर्मलं क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् । तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायकं सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६ ।।
(भुजंगप्रयात) किया नष्ट जिसने है अघतिमिर को,
रहता सदा सत्पुरुष के हृदय में। कभी विज्ञजन को निर्मल अनिर्मल,
निर्मल-अनिर्मल देता दिखाई।। जो नष्ट करता है अघ तिमिर को,
वह ज्ञानदीपक भगवान आतम। अज्ञानियों के लिए तो गहन है,
. पर ज्ञानियों को देता दिखाई॥१३६ ।। जिसने पापतिमिर को नष्ट किया है और जो सत्पुरुषों के हृदयकमल रूपी घर में स्थित है; वह निजज्ञानरूपी दीपक अर्थात् भगवान आत्मा कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी अनिर्मल दिखाई देता है और कभी निर्मलानिर्मल दिखाई देता है। इसकारण अज्ञानियों के लिए गहन है।
स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -