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________________ नियमसार अनुशीलन ९४ और स्वाध्याय भी एक आत्मा ही है । यह सम्पूर्ण कथन शुद्ध निश्चयनय का कथन है। इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए । । ५१-५३ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द स्वयं लिखते हैं, जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है 1 ( मालिनी ) मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले । भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः ।। १३५।। ( हरिगीत ) इक आतमा ही बस रहा मम सहज दर्शन - ज्ञान में । संवर में शुध उपयोग में चारित्र प्रत्याख्यान में ॥ दुष्कर्म अर सत्कर्म - इन सब कर्म के संन्यास में । मुक्ति पाने के लिए अन कोई साधन है नहीं ।। १३५ ।। मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृत रूपी कर्मद्वन्द्व के संन्यास काल में अर्थात् प्रत्याख्यान में, संवर में और शुद्ध योग अर्थात् शुद्धोपयोग में एकमात्र वह परमात्मा ही है, क्योंकि ये सब एक निज शुद्धात्मा के आश्रय से ही प्रगट होते हैं । मुक्ति की प्राप्ति के लिए जगत में अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ नहीं है, नहीं है । स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - 1 “मेरे चैतन्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे मेरी मुक्ति के लिए शरणभूत नहीं है । सहज सम्यग्दर्शन का विषयभूत जो परमात्मा है, वही एक मेरी मुक्ति का कारण है । उसी के अवलम्बन से शुद्ध ज्ञान, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग है । इसप्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, शुद्धोपयोगादि में परमात्मा का ही आश्रय है । " १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८०८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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