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________________ ९६ - नियमसार अनुशीलन ___ “स्वभाव की तरफ देखने पर निर्मल है, स्वभाव और पर्याय दोनों को साथ में देखने पर निर्मल-अनिर्मल दोनों एक साथ दिखाई पड़ते हैं और पर्याय को देखने पर विकारी दिखाई पड़ता है। __ऐसे तीन प्रकार हुये - द्रव्यदृष्टि से निर्मल, प्रमाण से निर्मलअनिर्मल दोनों एक साथ और पर्याय में अनिर्मल । इनमें से निर्मलस्वभाव के ऊपर जिसकी दृष्टि हुई, उसी को प्रत्याख्यान होता है; परन्तु अभी साधकदशा होने से पर्याय में मलिनता भी है। ___ ऐसा आत्मतत्त्व अज्ञानियों के लिए गहन है । जिसे ऐसे आत्मा का भान नहीं है, उसे प्रत्याख्यान नहीं होता। पर्याय में मलिनता और उसीसमय स्वभाव से निर्मल - ऐसा आत्मतत्त्व समझना अज्ञानियों के लिए कठिन है, किन्तु ज्ञानियों के हृदयकमलरूपी गृह में वह निजज्ञानरूपी दीपक निश्चलपने संस्थित है। ज्ञानियों के हृदय में भगवान आत्मा बसता है। ज्ञान दीपक स्थिर हो, पुण्य-पाप की वृत्ति से कम्पायमान न हो; उसका नाम प्रत्याख्यान है। हाथ जोड़ने से प्रत्याख्यान नहीं होता। देह तो अचेतन है, ज्ञानदीपक देह से भिन्न है। देह से भिन्न केवल चैतन्य का जिसको भान वर्तता है, उस सत्पुरुष को उसमें लीनता होने पर प्रत्याख्यान होता है।" इस कलश में यह बताया गया है कि परमशुद्धनिश्चयनय या परमभावग्राही शुद्धद्रव्यार्थिकनय से यह भगवान आत्मा एकाकार अर्थात् अत्यन्त निर्मल ही है और व्यवहारनय या पर्यायार्थिकनय से यह आत्मा अनेकाकार अर्थात् मलिन ही है। प्रमाण की अपेक्षा एकाकार भी है और अनेकाकार भी है, निर्मल भी है और मलिन भी है। उक्त नय कथनों से अपरिचित अज्ञानी जनों को अनेकान्तस्वभावी आत्मा का स्वरूप ख्याल में ही नहीं है; पर नयपक्षों से भलीभाँति परिचित आत्मानुभवी ज्ञानी जन उक्त भगवान आत्मा के स्वरूप से भलीभाँति परिचित हैं और इसकी आराधना में निरंतर संलग्न रहते हैं ।।१३६।।. १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१० . २. वही, पृष्ठ ८१०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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