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जीव, बन्धन और मोक्ष
दूसरे जन्म में साथ न जानेवाले अवधि ज्ञान को अननुगामी कहते हैं। जो अवधि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद उत्तरोत्तर बढ़ता जाये उसे वर्धमान कहते हैं, और जो उत्तरोत्तर घटता जाये उसे हीयमान कहते हैं। जो अवधि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद न घटे न बढ़े, बल्कि उस जन्म भर ज्यों का त्यों बना रहे, उसे अवस्थित कहते हैं और जो अवधि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद कभी
घटे और कभी बढ़े, उसे अनवस्थित कहते हैं। 4. मनःपर्यय ज्ञान-दूसरों के मन के भूत और वर्तमान विचारों को
जाननेवाले ज्ञान को मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान केवल मनुष्यों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। राग-द्वेष आदि मानसिक विकारों के दूर हो जाने पर ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमति
और विपुल मति। जो दूसरों के मन के सरल विचारों को जाने उसे ऋजुमति कहते हैं और जो दूसरों के मन के जटिल से जटिल विचारों को भी जान ले उसे विपुल मति कहते हैं। संयम और नियमपूर्वक दृढ़ साधना में लगे हुए महात्माओं या साधुजनों को ही विपुलमति की प्राप्ति होती है। ऋजुमति और विपुलमति में दो बातों को लेकर अन्तर है। एक तो ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होती है और दूसरे, ऋजुमति को प्राप्त करके उसे खोया भी जा सकता है। पर विपुलमति को प्राप्त करने के बाद उसे कभी खोया नहीं जा सकता। विपुलमति प्राप्त करनेवाला जीव इसी जन्म में केवल ज्ञान की भी प्रप्ति कर
लेता है। 5. केवल ज्ञान-समस्त कर्ममल के पूर्णतः विनष्ट हो जाने पर आत्मा
को अपने स्वाभाविक अनन्त ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसे ही सर्वज्ञता या केवल ज्ञान कहते हैं। यह अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियों से परे का ज्ञान है। इस ज्ञान द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित सभी द्रव्यों
और पर्यायों (परिवर्तनशील रूपों, धर्मों या अवस्थाओं) को एक-साथ जाना जाता है। केवल ज्ञानी को लोक और अलोक दोनों का ज्ञान प्राप्त होता है। केवल ज्ञान के स्वरूप को ज्ञानार्णव में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है: