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________________ 96 जैन धर्म : सार सन्देश उपदेशों को समझने के लिए शब्दों को पढ़ने (देखने) और सुनने की आवश्यकता होती है। देखना और सुनना मतिज्ञान के अन्दर आता है। इसलिए श्रुत ज्ञान मति ज्ञानपूर्वक होता है। श्रुत ज्ञान को मति ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि मति ज्ञान से केवल वर्तमान-सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त होता है, जबकि श्रुत ज्ञान भूत, वर्तमान और भविष्य से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान प्रदान करता है। धर्म-ग्रन्थों से सार्वकालिक सत्य का ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञानी और अनभवी व्यक्तियों द्वारा प्राप्त यह ज्ञान पवित्र, प्रामाणिक, संशय-रहित और निर्विवाद होता है। फिर भी मति ज्ञान की तरह श्रुत ज्ञान को भी परोक्ष ज्ञान ही माना जाता है। शेष तीनों ज्ञानों-अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान को वस्तुतः प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है, क्योंकि आत्मा इन तीनों प्रकार के ज्ञान को सीधे रूप से बिना किसी माध्यम के प्राप्त करती है। 3. अवधि ज्ञान-जीव जब अपने कर्मों को अंशत: नष्ट या उपशमित (शान्त) कर लेता है, तब उसे एक अतीन्द्रिय दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके द्वारा वह इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही अत्यन्त दूर, सूक्ष्म और साधारणतया अस्पष्ट रूपी (रूपवाले) पदार्थों को जान लेता है। पर इस ज्ञान से रूपी पदार्थों के सभी पर्यायों की जानकारी नहीं होती। इस सीमा के होने के कारण इस ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं। अवधि ज्ञान दो प्रकार के होते हैं-भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय। भव का अर्थ है जन्म और प्रत्यय का अर्थ है कारण। अर्थात् जिस अवधि ज्ञान के होने में जन्म ही निमित्त है, यानी जो अवधि ज्ञान जन्मजात होता है, उसे भव प्रत्यय अवधि ज्ञान कहते हैं। ऐसा जन्मजात अवधि ज्ञान केवल देव और नारकी जीवों को ही होता है। गुण-प्रत्यय अवधि ज्ञान कर्मों के न्यूनाधिक नष्ट या शान्त होने के कारण केवल कुछ मनुष्यों और पशुओं में ही पाया जाता है। इसके छः भेद हैं: (1) अनुगामी (2) अननुगामी (3) वर्धमान (4) हीयमान (5) अवस्थित और (6) अनवस्थित। इस जन्म के बाद दूसरे जन्म में साथ जानेवाले अवधि ज्ञान को अनुगामी कहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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