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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय-रहित (अनिश्चितता-रहित) ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। लौकिक पदार्थों के ज्ञान से इसका कोई प्रयोजन नहीं है। सम्यग्ज्ञान एक प्रकार से सच्चा तत्त्वज्ञान या आत्मज्ञान ही है । सम्यग्ज्ञान में परद्रव्यों का जानना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना कि निज आत्मतत्त्व का । 31 95 संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सच्ची श्रद्धा और दृढ़ विश्वास के आधार पर अजीवादि द्रव्यों से भिन्न आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन, अर्थात् सच्ची श्रद्धा और सच्चे विश्वास से ही सच्चा ज्ञान या सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है। वास्तव में दर्शन और ज्ञान - दोनों संगी हैं। दोनों एक साथ ही उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार सूर्य से या अग्नि से प्रकाश और ताप की उत्पत्ति एक साथ होती है, उसी प्रकार सच्ची श्रद्धा और सच्चा ज्ञान भी एक साथ ही उत्पन्न होते हैं । ज्ञान के भेद जैन धर्म में ज्ञान पाँच प्रकार के बताये गये हैं: 1. मति 2. श्रुत 3. अवधि 4. मन:पर्यय और 5. केवल । 1. मति ज्ञान - मन और इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को मति ज्ञान कहते हैं । यद्यपि इस प्रकार के ज्ञान को साधारणतया प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है, पर जैन धर्म के अनुसार जिस ज्ञान को आत्मा बिना किसी माध्यम के स्वतः जानती है, केवल उसीको सही अर्थ में प्रत्यक्ष कहा जा सकता है । इसलिए मन और इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को परोक्ष ज्ञान ही समझना चाहिए। यह केवल एक व्यावहारिक या लौकिक ज्ञान है । वास्तव में मन और इन्द्रियाँ सच्चे ज्ञान के साधन नहीं, बल्कि बाधक हैं । इन्द्रियों और मन की बाधाओं को धीरे-धीरे दूर करके ही साधक सच्चे प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति करते हैं । 2. श्रुत ज्ञान - धर्म -ग्रन्थों एवं ज्ञानी तथा अनुभवी व्यक्तियों के शाब्दिक उपदेशों से प्राप्त ज्ञान को श्रुत ज्ञान कहते हैं । लिखे हुए या बोले हुए
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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