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________________ 94 जैन धर्म : सार सन्देश तब वह स्वयं को जानता है, और इसे उन्होंने दर्शन कहा है। अतः दर्शन को अन्तर्मुख माना है और ज्ञान को बहिर्मुख।" 29 नथमल टाटिया भी इसी विचार का समर्थन करते हुए कहते हैं: एक ही चेतना उद्देश्य-भेद के अनुसार दर्शन भी है और ज्ञान भी। जब यह स्वयं को समझने में प्रयत्नशील रहती है तो इसे दर्शन कहते हैं और बाह्य जगत् को समझने में प्रयत्नशील रहती है तो इसे ज्ञान कहते हैं। इन दोनों विचारधाराओं में जितना अन्तर ऊपर से दिखाई देता है, उतना अन्तर वास्तव में है नहीं। उनका अन्तर मुख्यतः विभिन्न दृष्टिकोणों को अपनाने के कारण ही दीख पड़ता है। हम जानते हैं कि श्रद्धा-विश्वास के लिए केवल आवश्यक प्रारम्भिक जानकारी की ही आवश्यकता होती है और सम्यग्ज्ञान के लिए इसी प्रारम्भिक ज्ञान को पूर्ण रूप से विकसित किया जाता है। पर साथ ही हम यह भी जानते हैं कि साधक का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान या आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना ही है। अन्य तत्त्वों की जानकारी केवल आत्मा से उनकी भिन्नता दिखाने के लिए ही की जाती है। आत्मा ही सार तत्त्व है। इसलिए आत्मा के ज्ञान की आवश्यकता आत्मा में लीन होने के लिए है। पर आत्मा से भिन्न अन्य सांसारिक विषय असार हैं। इसलिए उनके ज्ञान की आवश्यकता उनके प्रति मोह और आसक्ति को त्यागने के लिए है। अत: आत्म तत्त्व का ज्ञान ही मुख्य है, जबकि अन्य तत्त्वों का ज्ञान गौण है। इन बातों को ध्यान में रखकर उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं में समन्वय या ताल-मेल करके हमें सम्यग्ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को समझना चाहिए। इसी समन्वयात्मक विचार को हुकमचन्द भारिल्ल ने इस प्रकार प्रकट किया है: सम्यग्ज्ञान की जितनी भी परिभाषाएँ दी हैं उन सबमें कोई अंतर नहीं है। वे मात्र भिन्न-भिन्न प्रकरणों में विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखी गयी हैं। सबसे यह तथ्य फलित होता है कि मोक्षमार्ग में प्रयोजन भत जीवादि (जीव अजीव आदि) पदार्थों का विशेषकर आत्मतत्त्व का
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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