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जीव, बन्धन और मोक्ष
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सम्यग्ज्ञान की परिभाषा पर भी देखा जाता है । पर सम्यग्ज्ञान के सम्बन्ध में जैनाचार्यों के बीच मुख्य रूप से केवल दो ही प्रकार की विचारधारा पायी जाती है।
पहली विचारधारा के अनुसार ज्ञान वास्तव में दर्शन का ही विकसित रूप है। दर्शन, अर्थात् श्रद्धा-विश्वास के लिए किसी भी व्यक्ति, वस्तु या तत्त्व की केवल सामान्य जानकारी ही पर्याप्त होती है । पर ज्ञान के लिए किसी व्यक्ति, वस्तु या तत्त्व के विशेष गुणों की व्यापक और गहरी जानकारी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार दर्शन प्रारम्भिक अवस्था का अनुभव है और ज्ञान उसी का परिपक्व स्वरूप है।
इस विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं:
आचार्य नेमिचन्द्र अपने द्रव्यसंग्रह में
गहराई में उतरे बिना वस्तुओं के सामान्य गुणों के बारे में जो ज्ञान होता 'है, वह 'दर्शन' है और वस्तुओं के विभिन्न पहलुओं के बारे में जो सूक्ष्म ज्ञान होता है, वह 'ज्ञान' है। 27
इसी प्रकार का विचार प्रकट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र भी अपनी प्रमाण - मीमांसा में कहते हैं:
दर्शन ही ज्ञान में बदल जाता है । ... 'ज्ञान' शब्द का अर्थ यह है कि इसमें वस्तु के विशिष्ट गुणों के बारे में जानकारी मिलती है। वे दर्शन की परिभाषा करते हैं: 'वस्तु की ऐसी जानकारी जिसमें उसके विशिष्ट गुणों का निर्धारण नहीं होता । 28
दूसरी विचारधारा के अनुसार आत्मा के अन्तर्मुखी ज्ञान को, जो श्रद्धाविश्वास का आधार बनता है, 'दर्शन' कहते हैं और आत्मा से भिन्न सांसारिक वस्तुओं के बहिर्मुखी ज्ञान को 'ज्ञान' कहते हैं ।
आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम पर अपनी धवला नामक टीका में इस दूसरी विचारधारा को प्रस्तुत किया है । उन्होंने "बाह्य पदार्थों के जातिगत और विशिष्ट गुणों के बोध को ज्ञान कहा है । जब आत्मन् अपने भीतर देखता है,