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जैन धर्म : सार सन्देश
पर (आत्मा से भिन्न) पदार्थों से उसकी मूर्छा (मोह या आसक्ति) बिलकुल हट जाती है। ... सम्यग्दृष्टि में विवेक है, वह भोगों से उदास रहता है- उनमें सुख नहीं मानता | 24
मोक्ष - मार्ग में सम्यग्दर्शन का स्थान अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्मामृत में इसकी प्राथमिकता दिखलाते हुए कहा गया है:
ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की प्रधान रूप से उपासना की जाती है, क्योंकि जिनदेव ने उस सम्यग्दर्शन को मोक्ष मार्ग के विषय में 'कर्णधार' अर्थात् पतवार या खेवटिया कहा है।
सम्यक्त्वके अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल प्राप्ति नहीं हो सकती है, जैसे कि बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि असम्भव है।
भावार्थः सम्यग्दर्शन रत्नत्रयरूप धर्म का मूल है। इसकी महिमा अनिर्वचनीय है । इसको प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीव उत्तरोत्तर आत्म-विकास करता हुआ सभी सांसारिक अभ्युदय सुखों को पाकर अन्त में परम निःश्रेयसरूप मोक्ष- सुख को प्राप्त करता है। 25
हुकमचन्द भारिल्ल ने भी ऐसा ही भाव प्रकट किया है । वे कहते हैं:
मुक्ति के मार्ग में सम्यग्दर्शन का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह मुक्ति - महल की प्रथम सीढ़ी है, इसके बिना ज्ञान और चारित्र का सम्यक् होना सम्भव नहीं है। ... सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है, जो इससे भ्रष्ट है वह भ्रष्ट ही है, उसको मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है । 26
इस प्रकार मोक्ष-मार्ग पर क़दम रखने और निरन्तर आगे बढ़ते हुए मोक्ष की प्राप्ति करने में सम्यग्दर्शन अत्यन्त ही सहायक सिद्ध होता है ।
2. सम्यग्ज्ञान
ज्ञान की शुरुआत दर्शन से ही होती है । सम्यग्दर्शन से युक्त ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यग्दर्शन की विभिन्न परिभाषाओं का कुछ प्रभाव