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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष सम्यग्दर्शन के प्रसंग में नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं: जो आत्मशुद्धि करने की ओर अपनी रुचि रखता है और तत्त्व के स्वरूप को भली-भाँति समझता है, इस बात पर कभी आशङ्का नहीं कर सकता कि आत्मा इन सब सांसारिक दुःखों से अवश्य छूट सकती है, तथा इनसे छूटने का उपाय सम्यक्दर्शन ज्ञान व चारित्र है, वह यह भी जानता है कि तत्त्व का सच्चा स्वरूप निःस्वार्थ और निष्पक्ष वीतराग व सर्वज्ञदेव ही ठीक-ठीक बता सकते हैं, न कि रागी द्वेषी असर्वज्ञ। ऐसी श्रद्धा को निःशक्ति अङ्ग कहते हैं।3।। ऐसी निस्सन्देह श्रद्धा और दृढ़ विश्वास को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। यही सच्ची श्रद्धा और दृढ़ विश्वास साधक को सदा लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता रहता है, जिसके सहारे वह मोक्ष मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों का साहस के साथ सामना करता हुआ अन्त में उन्हें पार कर लेता है। जिनके पास श्रद्धा-विश्वासरूपी दुर्लभ रत्न नहीं है या जिनका विश्वास कमज़ोर है, वे इच्छा रहते हुए भी परमार्थ के मार्ग में उन्नति नहीं कर पाते। उनकी अवस्था उन दुर्बल पंखोंवाले पक्षियों के समान है जो आकाश में ऊँची उड़ान भरना तो चाहते हैं, पर सच्ची श्रद्धा और विश्वासरूपी पंखों के न होने या कमजोर होने के कारण साधना की ऊँची उडान नहीं भर सकते। इसी कारण मोक्ष की प्राप्ति करने में वे विफल रहते हैं। पर दृढ़ श्रद्धा और विश्वासवाला साधक जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक श्रद्धा-विश्वासरूपी दीपक को कठिनाइयों की आँधी में सँभाल कर रखता है और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। सम्यग्दर्शन से युक्त व्यक्ति को 'सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है। सांसारिक लोग बाहरी सांसारिक वस्तुओं की ओर दौड़ते रहते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि आन्तरिक ज्ञान और आनन्द को अपना लक्ष्य बनाता है। वह बाहर से भोगी दीखता हुआ भी अन्तर से रागरहित योगी बना रहता है। उसके सम्बन्ध में गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं: सम्यग्दृष्टि को आत्मा और अनात्मा का भेद-विज्ञान प्रकट हो जाता है। वह सकल बाह्य पदार्थों को हेय (त्यागने योग्य) जानने लगता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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