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जैन धर्म : सार सन्देश
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नहीं है। सबका अन्तिम लक्ष्य आत्म तत्त्व का ही साक्षात्कार करना है । केवल भिन्न-भिन्न प्रयोजन को मुख्य रखने के कारण विभिन्न आचार्यों ने अलगअलग परिभाषाएँ दी हैं । उदाहरण के लिए, अरहन्तादि देव, शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास सभी तत्त्वों के श्रद्धान और ज्ञान का कारण है । फिर सद्शास्त्र के अन्तर्गत निश्चित रूप से सप्त तत्त्वों का श्रद्धान आ जाता है और सप्त तत्त्वों का ज्ञान होने पर देव शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास होना आवश्यक ही है । यह भी स्पष्ट है कि सप्त तत्त्वों के अन्तर्गत आत्म तत्त्व मुख्य रूप से ग्रहण किया जाता है । इसी प्रकार स्वपर - भेद विज्ञान में भी मुख्य प्रयोजन आत्मा को ही अजीवादि अन्य तत्त्वों से भिन्न रूप में जानना है। इस प्रकार प्रत्येक परिभाषा में किसी एक को मुख्य रूप से लेने पर भी गौण रूप से अन्य सभी उसके अन्दर आ जाते हैं । अतः इन सभी परिभाषाओं का अन्तिम लक्ष्य आत्म तत्त्व का ही श्रद्धान करना है, जिसकी शुरुआत देव - शास्त्र - गुरु के श्रद्धा से होती है ।
प्रथम परिभाषा में आये देव, शास्त्र और गुरु शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ समझ लेना चाहिए, क्योंकि मोक्ष - मार्ग पर क़दम बढ़ाते समय इनकी विशेष आवश्यकता होती है। संक्षेप में, मोक्ष तत्त्व को प्राप्त आत्मा ही देव कहे जाते हैं तथा संवर-निर्जरा द्वारा सभी कर्मों से रहित निर्मल आत्मा को ही गुरु कहते हैं, जो आप्त (प्रामाणिक या यथार्थ ज्ञान से युक्त) और सच्चे हितोपदेशी होते हैं। ऐसे देव और गुरु की उपदेशयुक्त वाणी ही शास्त्र है ।
अरहन्त देव या सच्चे गुरुदेव को ही 'आप्त' कहते हैं । ' आप्त' का अर्थ बतलाते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
जो राग-द्वेषादि दोषों से रहित वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, आगम का ईश अर्थात् हितोपदेशी हो, वही नियम से आप्त अर्थात् सच्चा देव हो सकता है। अन्यथा - इन तीनों गुणों में से किसी एक के बिना आप्तपना सम्भव नहीं है। 22
उपर्युक्त स्वरूपवाले देव, शास्त्र और गुरु में दृढ़ श्रद्धा और विश्वास होने को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं ।