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जीव, बन्धन और मोक्ष ___ यह श्रद्धा-विश्वास अन्ध-विश्वास से बिल्कुल भिन्न है; क्योंकि यह विश्वास सम्यक् (सच्चा या यथार्थ) है, जो प्रारम्भिक सोच-समझ और आवश्यक जाँचपड़ताल के बाद अपने निजी अनुभव के आधार पर किया जाता है।
अनेक जैनाचार्यों ने अपने-अपने विशेष अभिप्राय या दृष्टिकोण से इसकी अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं, पर इन परिभाषाओं के बीच वस्तुतः कोई मौलिक अन्तर या मतभेद नहीं है। मुख्य रूप से सम्यग्दर्शन की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गयी हैं: 1. सच्चे देव-शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धा-विश्वास रखना सम्यग्दर्शन है। 2. जीव-अजीव आदि तत्त्वार्थों में श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। 3. स्वपर-भेदविज्ञान ही सम्यग्दर्शन है। 4. आत्मा के सच्चे स्वरूप में श्रद्धा-विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है।
पहली परिभाषा देते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा गया है: सत्यार्थ अथवा मोक्ष के कारणीभूत देव, शास्त्र और गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है।" यही परिभाषा जैनधर्मामृत में भी दी गयी है। 18 दूसरी परिभाषा देते हुए तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में कहा गया है:
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् अर्थ-जीवादि तत्त्वार्थों का सच्चा श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। तीसरी परिभाषा का उल्लेख करते हुए मोक्ष-मार्ग प्रकाशक में कहा गया है: आत्मा का परद्रव्य से भिन्न अवलोकन वही नियम से सम्यग्दर्शन है। चौथी परिभाषा को पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
दर्शनमात्मविनिश्चितिः। अर्थ-अपनी आत्मा का ही यथार्थ रूप से निश्चय करना सम्यग्दर्शन है।
यद्यपि ऊपर से देखने पर ये परिभाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं, पर ध्यानपूर्वक विचार करने पर हम पाते हैं कि इन सबका अभिप्राय अलग-अलग