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जैन धर्म : सार सन्देश साहस कोई विरला ही कर पाता है। इन्हें रत्न की तरह अनमोल इसलिए कहा गया है, क्योंकि मोक्ष-मार्ग उस लक्ष्य की प्राप्ति कराता है जिसका कोई मोल है ही नहीं। यह तो जीव को परमपद की प्राप्ति करा देता है। इस मोक्ष-मार्ग पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को धन्य बना लेता है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र-ये अलग-अलग मोक्ष के तीन मार्ग नहीं हैं, बल्कि ये एक ही मोक्ष-मार्ग के तीन आवश्यक अंग हैं; अर्थात् मोक्ष-मार्ग में इन तीनों का परस्पर समन्वय या मेल है। इनमें से कोई भी एक साधन अपने-आप में पर्याप्त नहीं है। न केवल दर्शन या विश्वास मात्र से, न कोरे ज्ञान से और न विश्वास और ज्ञान से रहित दिशाहीन चारित्र (आचरण) से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए तीनों में यथोचित तालमेल होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, यदि कोई मनुष्य किसी गन्तव्य स्थान पर जाना चाहता है तो उसका मस्तिष्क (दिमाग़) लक्ष्य को निर्धारित करता है, आँखें उस लक्ष्य तक पहुँचने की राह दिखाती हैं और पैर उस तक चलकर जाते हैं। यदि लक्ष्य ही निश्चित न हो या लक्ष्य तक की राह देखने का कोई साधन न हो या वहाँ पहुँचानेवाले पैर साथ न दें तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में परस्पर तालमेल होना आवश्यक है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति बीमार हो तो उसे अपने इलाज के लिए किसी योग्य डॉक्टर या वैद्य में विश्वास होना चाहिए, उससे उचित दवा की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए और फिर बतायी गयी दवा का संयम और नियम के साथ सेवन करना चाहिए। तभी उस व्यक्ति की बीमारी दूर हो सकती है। ठीक उसी तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीनों में से कोई एक अपने-आप में पर्याप्त नहीं है, बल्कि इन तीनों को ताल-मेल के साथ ग्रहण करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अब हम इन तीनों पर विचार करेंगे। 1. सम्यग्दर्शन
जैन धर्म में 'दर्शन' शब्द मुख्यतः श्रद्धा और विश्वास का सूचक माना जाता है। जब जीव में अपने विवेक से या किसी सद्ग्रन्थ या सद्गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान या तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न होती है, तब वह इसकी प्राप्ति के लिए देव, शास्त्र और गुरु में सच्ची श्रद्धा और दृढ़ विश्वास करने लगता है। उसके इस श्रद्धा-विश्वास को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं।