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________________ 86 जैन धर्म : सार सन्देश ___जैन धर्म में तप को निर्जरा का उपाय बताया गया है, जैसा कि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में कहा गया है: तपसा निर्जरा च। अर्थ-तप से निर्जरा होती है और साथ ही संवर भी। जैन धर्म के अनुसार तप का वास्तविक अभिप्राय इच्छा को रोकना है। इसे स्पष्ट करते हुए धवला पुस्तक में कहा गया है: इच्छानिरोधस्तपः। अर्थ-इच्छाओं के निरोध का नाम तप है। इस प्रकार जैन धर्म के अनुसार तप का अर्थ शरीर को अनावश्यक कष्ट देना नहीं है, बल्कि उचित संयम, धर्माचरण और ध्यान की अन्तर्मुखी साधना द्वारा मन की इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है। यह बतलाते हुए कि तप का वास्तविक उद्देश्य इच्छा-निरोध, अर्थात् इच्छाओं को रोकना या उन पर विजय प्राप्त करना है और इसका सर्वोत्तम उपाय शुक्ल ध्यान है, जैनधर्मामृत में कहा गया है: जैन धर्म में शारीरिक तपस्या को वहीं तक स्थान या महत्त्व दिया गया है, जहाँ तक कि वह मानसिक तपस्या अर्थात् इच्छा-निरोध के लिए सहायक है। यदि शारीरिक तपस्या करते हुए भी मनुष्य मन की इच्छाओं का निरोध नहीं कर पाता है, तो उस तप को जैन धर्म में कोई स्थान नहीं दिया गया है, बल्कि उसे निरर्थक कहा गया है।...इसलिए बाह्य तपों को यथाशक्ति आवश्यकतानुसार करते हुए अन्तरंग तपों के बढ़ाने के लिए जैनाचार्यों ने उपदेश दिया है। मानसिक (अन्तरंग या अन्तर्मुखी) तपों में भी सर्वोत्तम तप जो शुक्ल ध्यान है, वस्तुत: वही कर्म-निर्जरा का प्रधान कारण है।15 यह समझने के बाद कि जीव संवर और निर्जरा की प्रक्रियाओं द्वारा कर्म-बन्धन से मुक्त होता है, हमें यह जानना आवश्यक है कि संवर और निर्जरा की प्रक्रियाओं को क्रियाशील बनाने और उन्हें शीघ्रातिशीघ्र फलीभूत
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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