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जीव, बन्धन और मोक्ष
यद्यपि संवर से नये कर्मों का आना रुक जाता है, नये कर्म जीव में प्रवेश नहीं कर पाते, फिर भी पुराने कर्म जीव में संचित ही रहते हैं। जब तक इनसे जीव का पूरी तरह छुटकारा नहीं हो जाता, तब तक उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इन संचित कर्मों के विनाश के लिए ही साधकों को कठिन साधना करने की आवश्यकता है। जीव के कर्मों के नष्ट हो जाने या झड़ जाने को ही निर्जरा कहते हैं। भाव संवर और द्रव्य संवर की तरह निर्जरा के भी दो भेद हैं-भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। जीव के जिन शुद्ध भावों के होने से कर्म झड़ते या नष्ट होते हैं उन भावों का होना ही भाव निर्जरा है और कर्मों का वास्तव में झड़ जाना या नष्ट हो जाना द्रव्य निर्जरा है।
निर्जरा दो प्रकार की होती है-सविपाक (विपाकजा) निर्जरा और अविपाक (अविपाकजा) निर्जरा। जब जीव के कर्मों का यथासमय भुगतान हो जाता है, तब अपना फल दे चुके कर्म अपने-आप झड़ जाते हैं। इसे सविपाक या विपाकजा निर्जरा कहते हैं। पर जब जीव अपनी ध्यान आदि साधना द्वारा अपने कर्मों को उनके फल देने के पूर्व ही जला देता या नष्ट कर देता है, तब उसे अविपाक या अविपाकजा निर्जरा कहते हैं। यह उसी तरह होता है, जैसे आम आदि फल यथासमय अपने-आप पकते हैं या अपने-आप पकने के पूर्व ही उन्हें उचित उपाय से पका लिया जाता है। संसारी जीवों का कर्मफल सविपाक (विपाकजा) होता है, पर सच्चे साधक अपने संचित कर्मों को उनके फल देने के पूर्व ही अपनी साधना द्वारा नष्ट कर देते हैं। इसलिए अविपाक निर्जरा केवल सच्चे साधकों या सन्त-महात्माओं को ही होती है।
जैनधर्मामृत में निर्जरा और उसके इन दो भेदों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है:
उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा।
आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा॥ अर्थ-संचित कर्मके दूर करने को निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक विपाकजा निर्जरा और दूसरी अविपाकजा निर्जरा।।