________________
जैन धर्म: सार सन्देश
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में संवर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है:
आस्रवनिरोधः संवरः। अर्थ-कर्मों के आस्रव का निरोध करना (उसे रोकना) संवर है। ___ संवर के दो भेद कहे गये हैं-भाव संवर और द्रव्य संवर। जीव के जिन आन्तरिक भावों से कर्मों का आस्रव रुक जाता है, उन भावों को ही भाव संवर कहते हैं तथा इन भावों के फलस्वरूप नये कर्म-पुद्गलों का जीव के साथ न बँधना ही द्रव्य संवर कहलाता है। ____ कर्म-परमाणु जीव की ओर आकृष्ट न हों और जीव से न बँधे, इसके लिए जिन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है, उन्हें संवर का कारण कहा जाता है। वे छ: प्रकार के बताये गये हैं: (1) गुप्ति-मन, वचन और काय की चंचलता को रोकना। कर्मों के आस्रव को रोकने के लिए यही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। पर मन-इन्द्रिय की चंचलता को एकाएक रोक पाना प्रायः असम्भव है। इसलिए निम्नलिखित सहायक साधन बतलाये गये हैं: (2) समिति-चलने-फिरने, उठने-बैठने, खाने-पीने आदि में इस प्रकार सावधानी बरतना कि जीव-हिंसा न होने पावे। (3) धर्म-विषय-विकारों से बचे रहने के लिए सत्पुरुषों द्वारा बताये धर्माचरण को अपनाना (विशेष विस्तार के लिए अध्याय 3: जैन धर्म का स्वरूप देखें)। (4) अनुप्रेक्षा-संसार, देह और भोगों के प्रति विरक्ति उत्पन्न करने के लिए इन सबकी अनित्यता आदि की भावना करना (विशेष विस्तार के लिए अध्याय 6: अनुप्रेक्षा देखें)। (5) परीषहजय-भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि से उत्पन्न कष्टों या कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता प्राप्त करना और (6) चारित्र-सत्पुरुषों के बताये मार्ग पर चलते हुए सदाचार के नियमों का पालन करना और आन्तरिक साधना में लगना (विशेष विस्तार के लिए इसी अध्याय में आगे सम्यक चारित्र देखें)
संवर के इन उपायों का उल्लेख तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में इन शब्दों में किया गया है:
स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः॥" अर्थ-वह (संवर) गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है।