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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष शुभ भावों से पुण्यास्रव और पुण्यबंध होता है तथा अशुभ भावों से पापास्रव और पापबंध होता है। बंध चाहे पुण्य का हो या पाप का, वह है तो आखिर बंध ही। उससे आत्मा बंधती ही है, मुक्त तो नहीं होती। पुण्य को सोने की बेड़ी एवं पाप को लोहे की बेड़ी बताया है।' बन्धन की अवस्था में जीव और पुद्गल एक-दूसरे के साथ उसी प्रकार एकमेक (घुल-मिलकर एक) हो जाते हैं जिस प्रकार दूध और पानी आपस में मिलकर एकमेक हो जाते हैं; अथवा जैसे तप्त लाल अंगारे में कोयला और आग या तप्त लाल लोहे में लोहा और आग-दोनों एकमेक हो जाते हैं। पानी से मिले दूध की किसी भी बूंद में दूध और पानी मिले हुए ही रहते हैं। इसी तरह तप्त अंगारे या तप्त लोहे के प्रत्येक भाग में क्रमश: कोयला और आग तथा लोहा और आग मिले हुए ही पाये जाते हैं। इसी प्रकार सजीव शरीर के प्रत्येक भाग में पुद्गल और चैतन्य (जो जीव का लक्षण है) मिले हुए पाये जाते हैं। जब उचित विधि से पानी से मिले दूध को औंटा जाता है, तभी दूध को पानी से अलग किया जा सकता है। उसी तरह जब अंगारे और तप्त लोहे को ठंढा किया जाता है, तभी कोयला और लोहा आग से अलग होते हैं। उसी प्रकार जब उचित विधि से जीव अपने को कर्मों से अलग कर लेता या कर्मों को मिटा देता है, तब वह कर्मों से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। _अब हम मोक्ष-प्राप्ति की प्रक्रिया और साधन पर विचार करेंगे। मोक्ष बन्धन से मुक्त होने की प्रक्रिया हम देख चुके हैं कि जीव का पुद्गलों से संयोग होना ही बन्धन है। इसलिए जीव का पुद्गलों से वियोग होना ही मोक्ष है। जीव का पुद्गलों से वियोग तभी हो सकता है जब जीव में नये पुद्गलों का प्रवेश (आस्रव) बन्द हो जाये और जीव में जो पुद्गल पहले से प्रविष्ट हैं, वे झड़ जायें या नष्ट हो जायें। जैन धर्म में पहले को 'संवर' और दूसरे को 'निर्जरा' कहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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