________________
जैन धर्मः सार सन्देश न्यूनाधिक अंश में पायी जाती हैं, पर केवल वे ही इन्हें देख सकते हैं जिन्हें आन्तरिक दृष्टि प्राप्त है। साधारण संसारी जीवों को ये लेश्याएँ दिखाई नहीं देतीं। मुक्त जीवों को लेश्या नहीं होती, क्योंकि उनमें कषायों का अन्त हो चुका होता है।
कुछ लोग पाप कर्मों से दूर रहने और अधिक से अधिक पुण्य कर्म करने पर जोर देते हैं। पाप कर्मों से पुण्य कर्म अवश्य ही अच्छे हैं, पर केवल पुण्य कर्मों के करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। यदि पाप कर्मों से जीव अशुभ लेश्याओं से रंजित होता है तो पुण्य कर्मों से शुभ लेश्याओं से रंजित होता है। इस प्रकार पाप और पुण्य-दोनों जीव को बन्धन में फँसाये ही रखते हैं। अन्तर केवल यह है कि पुण्य कर्म सुखदायी भोग-विषयों से युक्त मनुष्य योनि या देवयोनि में जन्म लेने का कारण बनते हैं, जबकि पाप कर्म दुःखों से भरे नरक या पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेने का कारण बनते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पाप कर्मों द्वारा जीव लोहे की सख़्त बेड़ियों से बाँधा जाता है और पुण्य कर्मों द्वारा वह सुन्दर दीखनेवाली सोने की बेड़ियों से बाँधा जाता है। पर इनमें से किसी भी कर्म से जीव को मुक्ति नहीं मिलती। वह संसार का कैदी ही बना रहता है और आवागमन के चक्र से छुटकारा नहीं पाता। हुकमचन्द भारिल्ल ने इस तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है:
सामान्यजन पुण्य को भला और पाप को बुरा समझ लेते हैं, क्योंकि पुण्य से मनुष्य और देव गति की प्राप्ति होती है और पाप से नरक व तिर्यंच गति की। ___ उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि चारों गतियाँ संसार हैं और संसार दुःखरूप ही है। पुण्य और पाप दोनों संसार के ही कारण हैं। संसार में प्रवेश करानेवाले पुण्य-पाप भले कैसे हो सकते हैं ? पुण्य-पाप बंधरूप हैं और आत्मा का हित अबंध (मोक्ष) दशा प्राप्त करने में है। यद्यपि पाप की अपेक्षा पुण्य को भला कहा गया है, किन्तु मुक्ति के मार्ग में उसका स्थान अभावात्मक ही है।