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जीव, बन्धन और मोक्ष उसी प्रकार कषायरहित जीव के तन, मन और वचन से किये गये कर्म जीव से नहीं बँधते। दूसरे शब्दों में, कषायरहित जीव के कर्म बन्धनकारी नहीं होते।
जीव के कषाय (दूषित मनोभाव) के कारण ही पुद्गल-परमाणुओं (कर्माणुओं) का जीव की ओर खिंचाव होता है। इनके इस खिंचाव या आकर्षण को जैन धर्म में 'आसव' कहा जाता है। जीव का दषित मनोभावों से युक्त होना ही कर्माणुओं के आकर्षण का कारण है। इसलिए इसे 'भावासव' कहते हैं और कर्माणुओं के वास्तव में जीव से चिपक जाने को 'द्रव्यासव' कहते हैं।
जीव के शुभ या अशुभ मनोभावों के अनुसार ही जीव में शुभ या अशुभ कर्माणुओं का प्रवेश होता है। शुभ और अशुभ मनोभावों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार ही पुण्य और पाप के आस्रव में भी विशेषता होती है। इस प्रकार कषाय (मनोविकार) ही जीव के बन्धन के कारण हैं। बन्धन की परिभाषा देते हुए तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में कहा गया है:
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। अर्थ-कषाय से युक्त होने से जीव अपने कर्मों के उपयुक्त पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्धन है।
जैन धर्म में बन्धन के दो भेद किये जाते हैं: (1) भाव बन्ध और (2) द्रव्य बन्ध। चूँकि कषाय (मन के विकारों) के कारण ही कर्म-पुद्गल जीव की
ओर आकृष्ट होते हैं, इसलिए मनोविकारों के प्रकट होने को ही 'भाव बन्ध' कहते हैं और इसके फलस्वरूप कर्म-पदगलों के जीव के साथ चिपक जाने को यानी बँध जाने को द्रव्य बन्ध कहते हैं।
विभिन्न कषायों से ग्रसित जीव की मन, वचन और काय की शुभ और अशुभ क्रियाएँ जीव को छ: प्रकार के सूक्ष्म रंगों से रंग देती हैं, जिन्हें जैन धर्म में 'लेश्या' कहा जाता है। लेश्याओं के छ: रंग बताये गये हैं-1. कृष्णा (काला) 2. नील (नीला) 3. कापोत (भूरा) 4. पीत (सोने के समान पीला) 5. पद्म (कमल के रंग का) और 6. श्वेत (उजला) इनमें पहली तीन लेश्याएँ अशुभ और शेष तीन लेश्याएँ शुभ के सूचक हैं। सभी संसारी जीवों में से लेश्याएँ