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________________ 80 जैन धर्म : सार सन्देश चूँकि अघातिया कर्मों का सम्बन्ध केवल अगले एक जीवन से ही होता है, इसलिए वे उस विशेष जीवन-काल में अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं। कुछ अन्य भारतीय दार्शनिकों या विचारकों के अनुसार ऐसे कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि जिस योनि में हम जन्म लेते हैं, जिस प्रकार का शरीर हमें मिलता है, जिस प्रकार के समाज या परिस्थितियों में हमें रहना होता है, जिस प्रकार की हमारी रुझान या प्रवृत्ति होती है और जितने समय तक हम जीवित रहते हैं-ये सभी बातें हमारे पूर्व कर्मों द्वारा ही निर्धारित होती हैं। इसलिए इन्हें न अकारण या आकस्मिक समझना चाहिए और न इनके लिए किसी दूसरे को दोषी ठहराना चाहिए। हम अपने ही किये कर्मों के कारण बन्धन में पड़ते हैं। इसलिए हम अपने ही पुरुषार्थ द्वारा अपने को मुक्त कर सकते हैं। हम अपने ही मन के विकारों या दुर्भावनाओं के प्रभाव में आकर अनेकों प्रकार के कर्म करते हैं और ये कर्म हमें सांसारिक बन्धनों में बाँध देते हैं। जैन धर्म के अनुसार हमारे चार प्रमुख विकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। इन्हें जैन धर्म में कषाय कहा जाता है। यह बताते हुए कि कषाय किसे कहते हैं, ये क्या करते हैं और ये कितने प्रकार के हैं, जैनधर्मामृत में कहा गया है: जो मोक्ष के कारणभूत चारित्र धारण करने के परिणाम (विकास या परिवर्तन) न होने देवें, और आत्मा के स्वरूप को कषं, दुःख देवें, उन्हें कषाय कहते हैं: वे कषाय मूल में चार प्रकार के हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ।' जीव जब भी कषाय से युक्त होकर अपने तन, मन या वचन से कोई कर्म करता है, तब उसमें एक स्पन्दन (हलन-चलन) होता है, जिसमें एक अजीब आकर्षण शक्ति होती है जो उस कर्म के अनुसार पुद्गल-परमाणुओं को (जो सर्वत्र संसार में भरे हुए हैं) अपनी ओर खींच लेती है। जैसे गीली (चिपचिपी) दीवाल पर उड़कर आयी हुई धूलि उससे चिपक जाती है, वैसे ही कषाययुक्त जीव से आनेवाले कर्माणु बँध जाते हैं। पर जैसे सूखी दीवाल पर उड़कर आनेवाली धूलि उस दीवाल पर ठहर नहीं पाती, उससे लगकर झड़ जाती है,
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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