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________________ 79 जीव, बन्धन और मोक्ष 2. दर्शनावरणीय कर्मः जो कर्म देव, गुरु और शास्त्र (सद्ग्रन्थ) के प्रति जीव के उचित श्रद्धा-विश्वास (दर्शन) को ढक लेते या प्रभावित करते हैं, उन्हें दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। 3. वेदनीय कर्मः जो कर्म जीव के स्वाभाविक अनन्त सुख को ढककर या प्रभावित कर उसमें सांसारिक दुःख-सुख उत्पन्न करते हैं, उन्हें वेदनीय कर्म कहते हैं। 4. मोहनीय कर्मः जो कर्म उचित श्रद्धा-विश्वास और उचित चारित्र (मोक्ष की ओर ले जानेवाले विचारों और आचरणों) को ढककर या प्रभावित कर भ्रम और मोह उत्पन्न करते हैं। इस कारण जीव धन-सम्पत्ति, परिवार आदि के मोह में पडकर सांसारिक जाल में उलझ जाता है। सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के मोह में उलझा जीव सदा विषय-सुख की आस में ही दौड़ता रहता है और अपने वास्तविक लक्ष्य से विमुख हो जाता है। इसलिए मोहनीय कर्म को जीव का सबसे बड़ा शत्रु और आवागमन के चक्र का मूल कारण माना जाता है। अघातिया कर्म के भेदः 1. आयु कर्मः जो कर्म जीव की आयु, अर्थात् अगले जीवन की अवधि, निश्चित करते हैं, उन्हें आयु कर्म कहते हैं। 2. नाम कर्मः जो कर्म इन बातों को निश्चित करते हैं कि जीव किस योनि में किस प्रकार के सुन्दर या कुरूप शरीर के साथ तथा किस प्रकार के गुणों और शक्तियों के साथ जन्म लेगा, उन्हें नाम कर्म कहते हैं। 3. गोत्र कर्मः जो कर्म जीव के अगले जन्म की परिस्थितियों और वातावरण को निश्चित करते हैं और यह निर्धारित करते हैं कि वह किस देश, समाज, कुल और परिवार में उत्पन्न होगा, उन्हें गोत्र कर्म कहते हैं। 4. अन्तराय कर्मः जो कर्म जीव के सत्कर्म करने की इच्छा में रुकावट पैदा करते या विघ्न डालते हैं, उन्हें अन्तराय कर्म कहते हैं। अन्तराय कर्मों के ही कारण जीव चाहता हुआ भी अनुकूल साधनों और परिस्थितियों के बावजूद उचित मार्ग पर नहीं चल पाता।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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